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३६४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
के किस प्रकार के भाव होते हैं और मन / चित्त आदि की कैसी दशा तथा वृत्ति प्रवृत्ति होती है | 1
१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
'मिथ्या' का अभिप्राय मोहग्रस्तता है और गुणस्थान आत्मा की दशा को संसूचित करता है कि आत्मा के गुणों की क्या दशा है ?
प्रस्तुत गुणस्थान में आत्मा मोह से पूरी तरह ढकी रहती है । मोह का अभिप्राय है - संसार और सांसारिक भोगों की लालसा, परिवार, पुत्र, पत्नी, धन-सम्पत्ति आदि में मग्न रहना, आत्मा और आत्मा की शुद्धि, उन्नति और विकास की ओर ध्यान न देना ।
यह आत्मा हिर्मुखी होता है । वह बाहरी पदार्थों में सुख की खोज करता है, इसी कारण धन, वैभव आदि के संचय में तल्लीन रहता है । उसकी इच्छा आत्मा के स्वभाव को जानने की होती ही नहीं । परिणामस्वरूप वह आत्मिक आनन्द का रसास्वाद नहीं कर पाता । उससे वंचित ही रहता है | मोहग्रस्त दशा में भ्रमित हुआ संसार में भटकता रहता है ।
सैद्धान्तिक अथवा कर्मग्रन्थों की दृष्टि से ऐसे आत्मा को दर्शनसप्तक का तीव्र उदय रहता है । दर्शन सप्तक में मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियां (१) मिथ्यात्व (२) मिश्रमोहनीय और ( ३ ) सम्यक्त्वमोहनीय तथा चारित्र मोहनीय की चार प्रकृतियाँ (४) अनन्तानुबंधी क्रोध ( ५ ) अनन्तानुबंधी मान (६) अनन्तानुबन्धी माया और अनन्तानुबन्धी लोभ होती हैं ।
अनन्तानुबन्धी का अभिप्राय है- इन कषायों का अनन्तकाल से बंध होता रहा है, यानी आत्मा और कपयों का अनन्तकालीन बंधन |
१ गुणस्थान जैनदर्शन का विशिष्ट शब्द है । इसका कर्मग्रन्थों में विशद वर्णन किया गया है । प्रत्येक गुणस्थान में कितनी कर्म - प्रकृतियों का बंध, उदय, क्षय, क्षयोपशम होता है, कितनी कर्म- प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति होती है, इन सब बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । किन्तु नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में इतना विशद वर्णन अपेक्षित नहीं है, अतः आत्मा के भावों, मन की प्रवृत्तियों तथा इनके नैतिक / आध्यात्मिक प्रभाव तक ही गुण-स्थान वर्णन को सीमित रखा गया है ।
जिज्ञासु लेखक का ग्रन्थ 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' में गुणस्थान का वर्णन देखें |
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