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आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३६३
कर्म कर्म आठ हैं-(१) ज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय ।
इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाती कर्म है तथा आयू, नाम, गोत्र और वेदनीय अघाती हैं। घाती का अभिप्राय है-इनका घात-क्षय किये बिना 'कैवल्य' प्राप्त नहीं होता।
मोहनीय कर्म के प्रमुख दो भेद हैं-(१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनाय ।
__क्षय और उदय आठों कर्मों का हो सकता है किन्तु क्षयोपशम चारों घाती कर्मों का ही संभव है और उपशम केवल मोहनीय कर्म का ही होता है। दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम, क्षय तथा उपशम से दृष्टि अथवा श्रद्धा विशुद्ध होती है और चारित्रमोहनीय की इन्हीं अवस्थाओं से चारित्र-विशुद्धि होती है।
ज्ञानावरणीय के क्षय, क्षयोपशम से ज्ञान की निर्मलता, दर्शनावरणीय की इन्हीं अवस्थाओं से दर्शन की विशुद्धि और अन्तराय कर्म यही अवस्थाएँ आत्मा के वीर्यगुण के प्रगटीकरण भूमिकाएं निष्पन्न करती हैं।
___ औदयिक भाव सांसारिक सुख-दुःख आदि का निमित्त बनता है तथा आत्मा के आध्यात्मिक नैतिक विकास में बाधक बनता है।
पारिणामिक भाव आत्मा के स्वभाव परिणमन में सहायक होता है, इसलिये यह आध्यात्मिक नैतिक विकास अथवा पतन में न साधक है और न बाधक ही है। ____ आध्यात्मिक/नैतिक उत्थान-पतन की दृष्टि से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव ही महत्वपूर्ण है, इनमें प्रथम तीन प्रकार के भावों का अधिक महत्व है।
अब हम गणस्थानों का आध्यात्मिक नैतिक विकास की दष्टि से विवेचन प्रस्तुत करते हैं, साथ ही यह भी कि प्रत्येक गुणस्थान में आत्मा
१. तत्वार्थसूत्र ८/५
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