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________________ ३६२ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सघनतम कर्मावरण से प्रच्छन्न आत्मा की मन्दतम दशा से लेकर आत्मा की सहज-स्वाभाविक निर्मल, कर्मावरणरहित, सहज शुद्ध दशा की प्राप्ति को हो आत्मा का विकास कहा गया है। इस विकास के सोपानों को १४ स्तरों में जैन मनीषियों द्वारा वर्गीकृत किया गया और इनका नाम 'गुणस्थान' दिया गया है। चौदह विकास सोपानों की अपेक्षा से गुणस्थान भी चौदह हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि (३) मिश्रदृष्टि (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) देशविरति (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) निवृत्तिबादर (९) अनिवृत्तिबादर (१०) सूक्ष्मसंपराय (११) उपशांतमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगी केवली (१४) अयोगी केवली हमारा विषय चूंकि आध्यात्मिक नैतिक विकास से संबंधित है इसलिये चेतना (आत्मा) की परिणतियाँ (भाव-भावधारा) और उनको प्रभावित करने वाले विरोधी घटकों को सामान्य जानकारी कर लेना अत्यन्त आवश्यक है। चेतना को परिणतियों को 'भाव' कहा गया है और उनको प्रभावित करने वाले घटकों को 'कर्म' संज्ञा से अभिहित किया गया है। चेतना के भाव चेतना अथवा आत्मा के पाँच प्रकार के भाव हैं-(१) औदयिक (२) क्षायिक (३) औपशमिक (४) क्षायोपशमिक और (५) पारिणामिक ।' इनमें से पारिणामिक भाव जीव के अपने हैं, उसकी स्वयं की परिणमन क्रिया है । शेष चार भाव कर्मों की विभिन्न दशाओं के परिणामस्वरूप जीव में होते हैं । कर्मों के उदय से औदयिक भाव, क्षय से क्षायिक भाव, उपशम से औपशमिक भाव और क्षयोपशम से क्षायोपशमिक भाव । १. औपमिकक्षायिकौ भावो मिश्रश्च जीवस्यस्वतत्वमौदयिक पारिणामिकौ च । -तत्वार्थसूत्र २/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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