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३६८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशोलन
down fall) ही इस गुणस्थान का माना गया है, जो शास्त्रों के अनुसार ६ आलिका' मात्र है ।
नीति की दृष्टि से 'सासादन' और 'सास्वादन' दोनों ही शब्द महत्वपूर्ण हैं । इसका अभिप्राय यह है कि नीति ( सुनीति / धर्मनीति) की भूमिका पर पहुँचकर भी उसकी विराधना कर देना, त्याग देना, उस स्थिति से पतित हो जाना ।
इस गुणस्थान का काल इतना अल्प है कि नीति की दृष्टि से विवेचना का कोई अर्थ ही नहीं हो सकता ।
३. मिश्र गुणस्थान ( भटकता विश्वास )
जिस आत्मा का विश्वास सम्यक् और मिथ्या - दोनों प्रकार के भावों से मिश्रित होता है, वह मिश्रदृष्टि कहलाता है ।
वस्तुतः यह गुणस्थान भी विकास का न होकर पतन का है । सम्यवत्व से गिरने पर इस गुणस्थान की प्राप्ति होती है और तब भी जीव इस गुणस्थान पर पहुँच सकता है जब सम्यक्त्व प्राप्त करके मिथ्यात्वी बन गया हो और फिर मिथ्यात्व से उन्नति करके इस स्थान पर पहुँचा हो ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह स्थान बोधात्मा और अबोधात्मा के मध्य झूलना ( oscillating ) है । अबोधात्मा अथवा अहं व्यक्ति को भोगों की ओर मोड़ने का प्रयास करता है तो बोधात्मा आदर्शात्मक स्थिति की ओर उन्नत करना चाहता है । इस संघर्ष में यदि अबोधात्मा विजयी होता है तो व्यक्ति मिक्ष्यात्व में गिर जाता है और यदि बोधात्मा विजय प्राप्त कर लेता है तो सम्यक्त्वी बन जाता है ।
दोनों भावों की इस संघर्षमय स्थिति के कारण ही शास्त्रों में इसका स्वभाव दही- मिश्री मिश्रित जैसा बताया गया है । जिस प्रकार दही और मिश्री का मीठा - खट्टा स्वाद आता है, वैसा ही स्वाद इस गुणस्थानवर्ती जीव को सम्यक्त्व - मिथ्यात्व की स्थिति का अनुभव होता है ।
१. एक मुहूर्त ( ४८ मिनट) में १६ : ७७२१६ आवलिकाएं होती हैं । - मुनि सुखलाल : साधना का सोना, विज्ञान की कसौटी, पृ० ६६
२, मिश्रकर्मोदयाज्जीवे सम्यग्मिथ्यात्वमिश्रितः ।
यो भावोऽन्तर्मुहूर्तस्या- तन्मिश्रस्थानमुच्यते ॥
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- गुणस्थान क्रमारोह १३
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