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________________ ३४८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सूक्तियों और दोहों की रचना की है। एक संस्कृत नीतिशास्त्रकार ने तो यहाँ तक लिखा है कि मूर्खजन ही पत्थरों को रत्न कहते हैं, वास्तव में तो संसार में तीन ही रत्न हैं-अन्न, जल और सुभाषित- मधुर वचन । (३) एषणा-एषणा का अर्थ है-खोजना, गवेषणा करना। साध्वाचार के सन्दर्भ में निर्दोष आहार की गवेषणा करना, उसे ग्रहण करना और उदरस्थ करना एषणा समिति है। इसी प्रकार उपधि और शय्या की गवेषणा करना भी एषणा समिति है। लेकिन नीति एषणा को विस्तृत अर्थ में ग्रहण करती है। वहां शुद्ध आहार तो अपेक्षित है, क्योंकि अन्न का प्रभाव मानसिक चित्तवत्तियों पर पड़ता है, किन्तु अन्य सभी साधनों की गवेषणा भी इसमें सम्मिलित है।। - नीति का सिद्धान्त है कि साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधनों की पवित्रता भी अति आवश्यक है । सदोष अथवा अनुचित साधनों से शुभ ध्येय को प्राप्त नहीं किया जा सकता और यदि किसी प्रकार प्राप्त कर भी लिया जाय तो वह अनैतिक ही होगा, दीर्घकाल में उसका परिणाम विपरीत ही सामने आयेगा, अतः साधन पवित्र हों और उचित रूप से प्राप्त किये गये हों तथा उनका उपयोग भी सही प्रकार से हो। (४) आदान-भाण्ड मात्र-निक्षेपणा समिति--तत्वार्थ सूत्र में इसे आदाननिक्षेपण समिति कहा गया है। भाव यह है कि किसी भी वस्तु को उठाना अथवा रखना हो तो देखभाल कर उठाना-रखना चाहिए। इससे क्षुद्र जीवों की हिंसा से तो बचाव होता ही है, उन वस्तुओं की सुरक्षा भी होती है, वे जल्दी टूटती-फूटती नहीं, अधिक समय तक काम देती हैं, उपयोग-योग्य बनी रहती हैं। इस प्रकार की सावधानी व्यावहारिक जीवन में भी आवश्यक है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, नैतिक आदि सभी प्रकार की जीवन विधाओं में इसका महत्व स्पष्ट है। (५) उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाण-जल्ल परिष्ठापनिका समिति- यह सभी शरीर मलों के नाम हैं । उच्चार का अर्थ है विष्ठा, प्रस्रवण मूत्र को १. उत्तराध्ययन सूत्र २४/११-१२ २ उत्तराध्ययन सूत्र २४/१३-१४ ३ तत्वार्थ सूत्र ६, ५ ४ उत्तराध्ययन सूत्र २४/१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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