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३४६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
इनको उत्तराध्ययन सूत्र में प्रवचनमाता कहा है और इसका कारण यह बताया गया है कि इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से इनको प्रवचनमाता कहने का कारण यह है कि जिस प्रकार माता अपनी सावधानी और विवेक तथा जागरूकता से यत्नपूर्वक शिशु की रक्षा, तथा उसका संवर्धन करती है, इसी प्रकार यह समितिगुप्ति भी महाव्रतों की सुरक्षा और उनका संवर्धन करती हैं ।
गुप्ति और समिति का हार्द यतना है, जिसे जयणा भी कहा गया
जब महावीर के समक्ष जिज्ञासू साधकों ने जिज्ञासा रखी कि हम किस प्रकार चलें, बैठे, सोवें, खावें इत्यादि सभी प्रवृत्तियां करें जिससे हमें पाप कर्मों का बन्ध न हो । 3
यह सत्य है कि मानव-जीवन में प्रवृत्ति आवश्यक है, अनिवार्य है। जब तक जीवन है, मानव बिना प्रवृत्ति किये रह ही नहीं सकता। भगवान भी इस तथ्य को जानते थे अतः उन्होंने समाधान दिया
यतनापूर्वक चलने, बैठने, सोने, खाने (आदि सभी प्रकार की क्रियाए करते हुए) से पाप बंध नहीं होता।
वास्तव में समिति-गुप्ति और विशेष रूप से समिति-यतना अथवा सावधानी और सतत जागरूकता है । श्रमण अपनी समस्त क्रियाएँ और प्रवृत्तियां सावधानीपूर्वक करता है।
समिति और गुप्ति में अन्तर प्रवृत्ति और निवृत्ति का है। विवेक दोनों में ही आवश्यक है । विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है और अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा आत्म-तत्व की रक्षा हेतु अशुभ योगों को रोकना गुप्ति है।
१ उत्तराध्ययन सूत्र २४/१ २ (क) वही २४, ३, (ख) वही २४, ३ लक्ष्मीवल्लभ टीका
(ग) उत्तराध्ययन बृहहवृत्ति पत्र ५१३, १४ ३ दशवकालिक सूत्र ४, ३६ ४ वही ४, ३१
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