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नैतिक चरम | ३४५
उसमें नैतिक निष्ठा की कमी होती है और वह अपने सुख और स्वार्थ को, भौतिक वैभव को बिल्कुल भी नहीं छोड़ना चाहता।
धर्मध्यान---शास्त्रों की भाषा में यह मोक्ष का हेतु है और नीतिशास्त्र की भाषा में नैतिकता का । धर्मध्यानी व्यक्ति के हृदय में उदारता का विशेष गुण होता है । वह अपने स्वार्थ का त्याग करके भी अन्य व्यक्तियों की सेवा-सहायता करता है। दया, मैत्री भावना, सर्वकल्याण कामना, शांति, क्षमा, परदुःखकातरता, सत्यवादिता, अहिंसावृत्ति, अचौर्यता आदि जितने भी सद्गुण हैं, उसके हृदय में इसी प्रकार आकर वास करते हैं जैसे पुष्पों में सुगन्ध ।
मूर्छा, प्रमाद, लालसा, लोकैयणा, धनेषणा, भोगैषणा, निन्दा, विकथा आदि दुर्गुण इसके हृदय से उसी प्रकार निकल भागते हैं जैसे सूर्य का प्रकाश होते ही अन्धकार विलीन हो जाता है।
इन दुर्गुणों के दूर होने और सद्गुणों के सद्भाव तथा उनकी निरंतर वृद्धि से व्यक्ति नैतिक चरम की स्थिति पर पहुँच जाता है।
शुक्लध्यान-सीधी मोक्ष की साधना है, वह नीति की सीमा से बाहर है। शुक्लध्यान में अवस्थित आत्मा अपने आत्मिक-शुद्ध आत्मिक भावों में ही निमग्न रहता है, लौकिक वृत्ति-प्रवृत्ति वहाँ नहीं रहती, इसीलिए वह नीति से अतीत है, ऊपर उठा हुआ है । - व्युत्सर्ग तप–'व्युत्सर्ग' का शाब्दिक अर्थ विशेष रूप से उत्सर्ग अथवा त्याग करना है। इसमें निःसंगता, अनासक्ति और निर्भयता को मनमस्तिष्क में धारण किया जाता है तथा जीवन की लालसा का परित्याग होता है। नीतिशास्त्र की अपेक्षा से 'जीवन की लालसा का त्याग' का अभिप्राय सभी प्रकार की आशाओं और तृष्णाओं का त्याग लिया जा सकता है । वस्तुतः आशा और तृष्णा के त्याग के उपरान्त ही मानव में निर्भयता का भाव दृढ़ होता है, तभी इसमें अनासक्ति की भावना गहराई से जमती है और फिर उसे किसी के संग-साथ की आवश्यकता नहीं रहती।
___अनासक्ति, निर्भयता आदि शुभ नैतिक प्रत्यय हैं। इनकी चरमावस्था ही नैतिक चरम है।
प्रवचनमाता साधु के आचार में प्रवचन माता का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इनका विधान महाव्रतों की सुरक्षा और विशुद्धता के लिए किया गया है।
यह संख्या में ८ हैं-तीन गुप्ति और पाँच समिति ।
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