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३४४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
आर्तध्यान-यह भी दुर्ध्यान तो है, किन्तु रौद्रध्यान की अपेक्षा इसकी तीव्रता कम है । यद्यपि आर्तध्यानी व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में ईर्ष्या, द्वष आदि दुर्भावनाएँ भी होती हैं किन्तु इनकी तीव्रता रौद्रध्यानी की अपेक्षा कम होती है। शोक, चिन्ता, आक्रन्दन, रुदन, क्लेश, विलाप आदि भी यह करता है। ___वस्तुतः आर्तध्यानी व्यक्ति सुखवादी होता है, अपना सुख ही इसे अभीप्सित होता है। इसलिए यह अप्रिय वस्तु के संसर्ग से दूर रहना चाहता है और प्रिय वस्तु या व्यक्ति को अपनाना चाहता है। यह किसी प्रकार की पीडा नहीं चाहता, थोड़ी सी भी पोड़ा होते ही, चिल्लाने लगता है और उसे दूर करने के उपायों का चिन्तन करने लगता है, आगामी काल और जीवन में भी सुख ही चाहता है-सुख भी संसारी-मानसिक, वाचसिक और कायिक; आत्मिक सुख की ओर इसकी प्रवृत्ति नहींवत् होती है।
यह दान, पुण्य, तप, भक्ति आदि जितनी भी क्रियाएँ करता है, उनका प्रमुख लक्ष्य लौकिक सुख-प्राप्ति होता है । इसके हृदय में अनेक प्रकार की इच्छाओं-आकांक्षाओं का वास रहता है।
__ इसी कारण वह बात-बात में शंका करता है, भयभीत-सा बना रहता है । इसका चित्त भ्रमित रहता है, कायरता और वस्तुओं में मूर्छा भाव भी रहता है । इसमें निन्दक वृत्ति, शिथिलता, प्रमाद, जड़ता, लोकै. षणा, धनैषणा, भोगैषणा की प्रधानता रहती है।
भ्रमित चित्त और प्रषणाओं से प्रभावित होकर धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य आदि की, पुत्र-पुत्री की प्राप्ति, शरीर-सुख और नीरोगता तथा सुखदायी वस्तुओं की लालसा के कारण यह विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं, मढ़ी-मसान आदि की पूजा-मान्यता भी करता है और विभिन्न प्रकार की मनौतियां भी मांगता है।
इसी अपेक्षा से धर्मशास्त्रों में आर्तध्यान को भी मोक्ष का हेतु न मानकर संसार का हेतू ही कहा गया है।
ऐसे व्यक्ति को घोर अनैतिक नहीं कहा जा सकता तो नैतिक कहना भी उचित नहीं है क्योंकि वह उसी सीमा तक नैतिक रहता है, जहाँ तक उसके व्यक्तिगत स्वार्थ में बाधा न पड़े अन्यथा वह नैतिक नियमों के तटबन्धों को तोड़ देता है, गलियां निकाल लेता है। इसका कारण यह है कि
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