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३४२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
स्वाध्याय कहा है । और वैदिक विद्वानों ने 'स्वयमध्ययनम्' तथा 'स्वस्यआत्मनोऽध्ययनम् ' स्वाध्याय के यह दो लक्षण दिये हैं । 2 पश्चिमी विद्वानों ने तो सद्ग्रन्थों के अध्ययन को जीवन का सर्वोत्तम साथी कहा है ।
वास्तव में स्वाध्याय नन्दनवन है | सद्ग्रन्थों के अध्ययन के समय मानव अपनी सारी आधि-व्याधि और उपाधियों को विस्मृत हो जाता है । उसे जीवन और चरित्र निर्माणकारी शिक्षाएँ मिलती हैं। मन की हताशा, निराशा समाप्त होकर नवीन आशा, उल्लास और स्फूर्ति का संचार हो जाता है ।
नीतिशास्त्र उभयमुखी है । वह व्यक्ति के बाहरी - लौकिक जीवन को भी सुखी करने का प्रयास करता है और साथ ही उसके आन्तरिक जीवन को भी आनन्द से ओत-प्रोत कर देना चाहता है ।
इस दृष्टि से स्वाध्याय के वे सभी रूप नीतिशास्त्र को ग्राह्य हैं, जो जीवन का निर्माण करते हैं, इसे निखारते हैं और चमकाते - दमकाते हैं । स्वाध्याय धर्म सम्बन्धी कर्तव्य भी है और नीति में भी सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय आवश्यक है । आत्मा के अध्ययन के रूप में व्यक्ति स्वयं के अन्दर छिपी पड़ी अनैतिकताओं का शोधन करता है, उन्हें निकाल फेंकता है, उन्मूलन कर देता है ।
स्वाध्याय का नैतिक और धार्मिक दृष्टि से सबसे बड़ा लाभ चित्तवृत्तियों का शोधन और मन का एकाग्र होना है ।
११. ध्यान — ध्यान शब्द बहुत व्यापक है । इसका प्रयोग धर्मशास्त्रों में भी होता है, योग - मार्ग में भी और साधारण बोलचाल में भी, जैसे सरलता से कह दिया जाता है - तुमने अमुक बात का ध्यान नहीं रखा ; तुम मेरा बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते हो, अगर तुमने ध्यान रखा होता तो तुम्हारी पाकिट से पर्स न गिरता या जेब न कटती । इस प्रकार के वाक्य साधारण बोलचाल की भाषा में प्रयोग कर ही दिये जाते हैं ।
योगशास्त्र में ध्यान का अर्थ बहुत गहरा है, वहां मन-वचन कायतीनों योगों की अकंप दशा को ध्यान कहा गया है । लगभग यही स्थिति धर्म साधना और धर्माचार के सन्दर्भ में भी है ।
१ स्थानांग २, २३०
२ देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ५८५ ३ (क) तत्वार्थ सूत्र ६, २७
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