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________________ नैतिक चरम | ३४१ शास्त्रों में विनय के सात' भेद बताये गये हैं, यद्यपि वे सभी नीति दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, किन्तु मन-वचन-काय विनय और चौथा लोकोपचार विनय का इस सन्दर्भ में विशेष महत्व है । केवल कायविनय तो पाखण्ड मात्र है । काय से और वचन से विनय तो धूर्त और धोखेबाज भी करते हैं, लोकोक्ति भी है - दगाबाज दूना नमे; किन्तु विनय वही है जिसमें मन भी संयुक्त हो। इसीलिए अहं विसर्जन को विनय कहा गया है । ऐसे ही विनय का नीति में और धर्म में भी महत्व है । श्रमण अपने गुरुजनों तथा अन्य साथी संतों के साथ जो हार्दिक विनयपूर्ण व्यवहार करता है, मन में विनय के भाव रखता है, ऐसे विनययुक्त वचन बोलता है और इसी प्रकार की काय चेष्टाएं करता है, वह सब कुछ उसकी उच्च कोटि की नैतिकता ही है । (e) वैयावृत्य - वैयावृत्य का अभिप्राय समर्पण भाव से सेवावृत्ति है । रोगी, वृद्ध, अशक्त और जरूरतमंद की अग्लान भाव से सेवा करना वैयावृत्य है । सेवा (servitude) को बिना किसी ननुनच के नैतिकता कहा जा सकता है और सेवा के साथ-साथ समर्पण की भावना जितनी बढ़ती जाती है व्यक्ति का नैतिक चरित्र भी उतना ही उच्चकोटि का होता जाता है । क्योंकि श्रमण में समर्पण की भावना सर्वोच्च कोटि की होती है, उसकी नैतिकता भी चरम तक पहुँची हुई होती है । (१०) स्वाध्याय - स्वाध्याय का धार्मिक, वैयक्तिक, सामाजिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से अत्यधिक महत्व है । व्यावहारिक क्षेत्र में इसे अध्ययन कहा जाता है और उस अध्ययन का लक्ष्य होता है, सांसारिक जीवन को सुखमय बनाना, किन्तु धार्मिक क्षेत्र में इसे स्वाध्याय कहा गया है । स्वाध्याय का अर्थ है, अपनी आत्मा का - स्वयं का अध्ययन करना । आवश्यक सूत्र में कहा गया है कि श्रेष्ठ अध्ययन का नाम स्वाध्याय' है । आचार्य अभयदेव ने भलीभाँति मर्यादा के साथ अध्ययन को १ (क) स्थानांग ७, ५८५ २ आवश्यक सूत्र ४ अ. Jain Education International (ख) भगवती श. २५ उ. ७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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