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नैतिक चरम | ३३७ इन सभी धर्मों (Excellent virtues) का नीतिशास्त्रीय महत्व स्पष्ट है । क्षमा धर्म भी है और उच्चकोटि की नैतिकता भी । इसी प्रकार मार्दव (मान विजय), आर्जव (छल-कपट रहिता), शौच (लोभ, लालच का निरसन) सभी नैतिक प्रत्यय हैं।
सत्य तो नैतिकता का आधार ही है, इसके अभाव में तप नैतिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही स्थिति तप, त्याग आदि के विषय में है । जो व्यक्ति अपनी कामनाओं, वासनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, उसे नैतिक कौन कहेगा ?
____ अतः स्पष्ट है कि धर्म जो आत्मशोधन की क्रिया करता है, वही शोधन क्रिया उच्चकोटि की नैतिकता का सर्वोच्च लक्ष्य है। इस प्रकार धर्म और नीति इस बिन्दु पर एक हो जाते हैं ।
तप तप श्रमण का एक आवश्यक कर्तव्य है । वह तपश्चर्या का मूर्तमन्त रूप होता है । उसका समस्त जीवन ही तप रूप बन जाता है । उसका मूल उद्देश्य होता है-शोधन, शोधन वृत्तियों का, प्रवृत्तियों का, आत्मा पर लगे कर्म-मल का । इसीलिए कहा गया है-आत्मशोधिनी क्रिया तपः । जितनी भी क्रियाएँ आत्म-शुद्धि में सहायक होती हैं, उन सबकी गणना तप में की गई है।
तप जितना आन्तरिक जीवन-शोधन के लिए आवश्यक है, उतना ही वह व्यक्ति के व्यवहार को, बाह्य जीवन को परिष्कृत करता है, तप से तपा हुआ व्यक्ति कंचन के समान निखरता है, उसका चारित्रिक और नैतिक उत्कर्ष होता है।
जैन आगमों में तप के बारह भेद बताये गये हैं जिनके बाह्य और आन्तरिक तप की अपेक्षा से छह-छह भेद किये गये हैं।
तप के बारह भेद बाह्य तप' के भेद हैं-१ अनशन २ ऊनोदरिका, ३ भिक्षाचर्या ४ रसपरित्याग ५ कायक्लेश और ६ प्रतिसंलीनता । १ (क) बाहिरिए तवे छबिहे पण्णत्त तं जहा
अणसण मूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो पडिसंलीणया वज्झो तवो होई ॥
-भगवती श. २५, उ० ७, सूत्र १८७
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