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________________ ३३६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन उत्तम धर्म धर्म यहाँ गुणों के रूप में है । श्रमण अथवा साधक जब अनुप्रेक्षाओं (Reflection ) को हृदय में दृढ़ीभूत कर लेता है तो उसके रोम-रोम में इन उत्तम सद्गुणों (Execellant Virtues ! का वास हो जाता है, जिन्हें श्रमणाचार के सन्दर्भ में धर्म की संज्ञा दी गई है । जैन शास्त्रों में ऐसे उत्तम धर्म' दश बताये गये हैं । (१) क्षमा- - क्रोध के बाह्य निमित्त कितने भी तीव्र हों किन्तु मन में क्रोध न आने देना । अपने घोर अपराधी और अपकारी के प्रति क्षमा भाव रखना, क्षमा कर देना । ( २ ) मार्दव – इसका अभिप्राय मान का, अभिमान का निरसन कर देना, हृदय से निकाल फेंकना; मृदुता और विनम्रता को हृदय में बसा लेना है | (३) आर्जव - छल, कपट, कुटिलता का मूलोच्छेदन | ( ४ ) शोच - लोभ, लालच, लालसा आदि को निकाल फेंकना । (५) सत्य - सत्य का मन, वचन, काय सर्वांग में वास, रोम-रोम में सत्य प्रतिष्ठित होना । (६) संयम - मन, वचन, काय और सभी इन्द्रियों का नियमन । इन सभी की अकुशल वृत्तियों का त्याग और कुशल प्रवृत्तियों में प्रवर्तन | (७) तप - मलिन वृत्तियों का शोधन करना, उन्हें विशुद्ध बनाना । (८) त्याग - - परिग्रह - बाहरी वस्तुओं को ग्रहण न करना, त्याग देना । (e) आकिंचन्य - वस्तुओं के प्रति ममत्व - अपनेपन के भाव का त्याग करना, निष्परिग्रहत्व को दृढ़ करना । (१०) ब्रह्मचर्य - कामनाओं, वासनाओं पर विजय प्राप्त करना । १ (क) दसविहे धम्मं पण ते त जहा - १. खंती २. मुत्ती ३. अज्जवे ४. मद्दवे ५. लाघवे ६. संजमे ७. सच्चे ८. तवे 8. चियाए १०. बंभचेरवासे । - समवायांग, समवाय १०, ( दश प्रकार का धर्म कहा गया है- १. क्षान्ति (क्षमा) २. मुक्ति (आकिचन्य) ३. आर्जव ४. मार्दव ५. लाघव ( शौच ) ६. सत्य ७. संयम ८. तप ६. त्याग और १०. ब्रह्मचर्य 1 ) (ख) उत्तमः क्षमा मादेवार्जव शौच सत्य संयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । – तत्वार्थसूत्र ६, ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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