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३३४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
जो बात धार्मिक आचरण के लिए सत्य है, वही नैतिक आचरण के लिए भी है । नीति - सुनीति पर दृढ़तापूर्वक प्रगति करने के लिए विरोध और कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता आवश्यक है, अन्यथा साधक का नैतिक पतन होने में देर नहीं लगती ।
इसी कारण श्रमण के नैतिक-धार्मिक गुणों में परीषह - उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करना आवश्यक बताया गया है । ..
द्वादश अनुप्रेक्षाएँ 'अनुप्रेक्षा' का अर्थ है - बार-बार देखना, गहराई से देखना, सूक्ष्मता से देखना, उस पर चिन्तन-मनन करना और अपनी पूर्व असंगत धारणाओं को चित्त में से निकालकर सत्य तथ्य को मन-मस्तिष्क में दृढ़ीभूत कर लेना |
जैनशास्त्रों के अनुसार इन भावनाओं की संख्या बारह ' है । (१) अनित्यानुप्रक्षा - इन्द्रियों के विषय, धन- योवन और यहाँ तक कि अपने शरीर की अनित्यता- क्षणभंगुरता पर चिन्तन करना ।
(२) अशरणानुप्रेक्षा - - धन-वैभव, परिवारीजन आदि कोई भी मेरा रक्षक नहीं है । मृत्यु, रोग आदि से कोई भी रक्षा नहीं कर सकता ।
(३) संसारानुप्र ेक्षा- - इस सम्पूर्ण संसार के सभी प्राणी दुःखी हैं कोई धन के अभाव में दुःखी है तो किसी को धनाधिक्य के कारण उसे छिपाने की चिन्ता सता रही है । रोग, भय, व्याधि आदि अनेक प्रकार के दुःख हैं, मनुष्य अथवा कोई भी प्राणी सुख की साँस भी नहीं ले पा रहे हैं । (४) एकत्वानुप्रक्षा - मेरी आत्मा अकेली ही है, यही शाश्वत है और अन्य सभी संयोग अस्थायी हैं ।
(५) अन्यत्वानुप्रक्षा - - यह धन, कुटुम्ब परिवार आदि सभी सांसारिक वस्तुएँ अन्य हैं और मैं इनसे भिन्न - पृथक हूँ ।
(६) अशुचिअनुप्रक्षा - यह शरीर अशुचि है, निन्दित पदार्थों से भरा है, रक्त, मांस, अस्थि आदि से भरा है, सिर्फ ऊपरी चमड़ी की सुन्दरता दिखाई देती है, वास्तव में इसमें सुन्दरता है ही नहीं । इसके प्रति मोह, स्नेह आदि रखना व्यर्थ है ।
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अनित्याशरणसंसारंकत्वान्यत्वाशुचित्वा स्रव संवर निर्जरालोक बोधिदुर्लभम्वाख्यात तत्वानुचिन्तमनुप्रेक्षा ।
- उमास्वाति : तत्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र ७
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