________________
नैतिक चरम | ३३३
(१८) जल्ल परीषह-पसीना आदि से शरीर पर धूल जम जाय तो मन में घृणा न लाना, स्नान संस्कार की इच्छा न करना।
(१६) सत्कार-पुरस्कार परीषह-जीवन में श्रमण को सत्कार मिले तो गर्व नहीं करना और दुत्कार मिले तो खेद नहीं करना, समभाव में रहना । अपितु वृत्ति यह रखनी चाहिए--
अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ।
(२०) प्रज्ञा परीषह-यदि ज्ञान का क्षयोपशम अधिक है, चमत्कारिणी प्रज्ञा है तो उसका मद न करना।
(२१) अज्ञान परीषह-यदि ज्ञान का क्षयोपशम कम है, स्मति मन्द है, सीखा हुआ विस्मृत हो जाता है तो मन में हताश-निराश, खेदखिन्न न होना।
(२२) अदर्शन परीषह-अपनी श्रद्धा को विचलित न होने देना, तीर्थकर भगवन्तों ने जैसे भाव फरमाए हैं उन पर दृढ़ विश्वास रखना।
परीषहों के साथ शास्त्रों में उपसर्ग शब्द भी आता है। यह शब्द भी वेदना का ही परिचायक है । उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं-(१) देवकृत (२) मनुष्यकृत और (3) तिर्यंचकृत । ये तीनों ही साधक को भाँतिभाँति की पीड़ा पहुँचाते हैं और साधक इन्हें समभावपूर्वक सहन करके खरा उतरता है। ... यद्यपि परीषहों (और उपसर्गों का भी) का अन्तर्भाव श्रमण के २६वें गुण वेदना-समाध्यासना में हो जाता है, किन्तु यहाँ पृथक वर्णन का अभिप्राय नीतिशास्त्रगत इनका महत्व है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होते ही विनष्ट हो जाता है, इसलिए यथाशक्ति अपने आप (आत्मा) को दुःख से भावित करना चाहिए।
यहाँ 'ज्ञान' शब्द में आचरण भी अन्तनिहित है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक सुखशीलिया तथा सुविधालोलुपी न बने, उसमें समभाव से कष्ट सहने की भी क्षमता आवश्यक है, अन्यथा विघ्न-बाधा, कठिनाई आते ही वह स्वीकृत सुपथ से विचलित हो सकता है।
१. सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणम्सति । तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेह भावियो ।।
-आ. कुन्दकुन्द-अष्ट पाहुड, मोक्षपाहुड ६२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org