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३३२ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन साधिका को भी पुरुष के प्रति विकारी भाव नहीं लाना चाहिए । इस विकार को जीतना चाहिए।
(६) अरति परीषह-अंगीकृत मार्ग श्रमणाचार का पालन करते हुए कठिनाइयाँ, असुविधाएँ आयें तो खेदखिन्न न होना, स्वीकृत मार्ग के प्रति मन में अरुचि भाव न लाना, अपितु दृढ़तापूर्वक इसका पालन करना।
(१०) चर्या परीषह-पाद विहार (पैदल चलना) में होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहना।
(११) निषद्या परीषह-ध्यान, कायोत्सर्ग आदि के लिए विषम भूमि में बैठना पड़े तो चित्त में अवसाद न लाना, समभूमि की इच्छा न करना। निर्जन वन में स्वाध्याय ध्यान करते सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि हिंस्र प्राणी भी
आ जाये तो भयभीत होकर आसन न छोड़ना अपितु अपने ध्यान-स्वाध्याय में निर्भीकता और दृढता पूर्वक तल्लीन रहना ।
(१२) शय्या परीषह–साधु के विश्राम के लिए जैसा भी ऊबड़-खाबड़ अथवा समस्थान मिले तो उसमें रागद्वेष न करना, यही सोचकर समभाव रखना कि मुझे तो एक रात ही रहना है, फिर क्यों हर्ष-विषाद करूँ।
(१२) आक्रोश परीषह-अपने प्रति कठोर, अप्रिय वचन सुनकर भी मन में क्रोध नहीं लाना।
(१३) वध परीषह-कोई व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष अथवा आवेश में आकर मारे-पीटे तो भी उस पर रोष न करना, समभावपूर्वक सहना ।
(१४) याचना परीषह—'मैं उच्च कुल का हूँ, भिक्षा कैसे माँगू ?' ऐसा विचार न कर, साधु मर्यादा के अनुसार आहार, औषधि आदि गृहस्थों से मांगकर--याचना करके लेना।
(१५) अलाभ परीषह-विधिपूर्वक याचना करने पर आवश्यक वस्तु की प्राप्ति न हो तो भी चित्त में खेद नहीं लाना ।
(१६) रोग परीषह–पूर्वकर्मोदय के कारण शरीर में किसी प्रकार की रोग-व्याधि आदि उत्पन्न हो जाय तो आकुल-व्याकुल न होना, हायहाय न करना, समभावपूर्वक शांत परिणामों से सहना।
(१७) तृण-स्पर्श परीषह-तृण की शय्या आदि के तृग शरीर में चुभे अथवा गमन करते समय पैरों में काँटे कंकर आदि चुभकर पीड़ा उत्पन्न करें तो उस पीड़ा को समभावपूर्वक सहना ।
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