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नैतिक चरम | ३३१
अतः नीति के अनुसार भी नैतिक आचरण के लिए यह तीनों सम्पन्नताएँ आवश्यक हैं ।
( २६-२७) वेदना और मारणान्तिक समाध्यासना सभी प्रकार की वेदनाओं, कष्टों, पीड़ाओं और यहाँ तक कि मृत्यु को भी समभावपूर्वक भोगना, स्वीकारना, वेदना और मारणान्तिक समाध्यासना कहलाती है ।
वेदनाओं को जैनागमों में परीषह' नाम देकर २२ भेदों में वर्गीकृत किया गया है । बाईस परीषहों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
( १-२ ) क्षुधा - पिपासा परीषह - भूख और प्यास की तीव्र वेदना से कंठगत प्राण हो जाने पर भी श्रमण नियमविरुद्ध ( अकल्पनीय ) भोजन, पानी ग्रहण नहीं करता, समभाव से इन वेदनाओं को भोगता है ।
( ३- ४) शीत-उष्ण परीषह - अधिक ठण्ड पड़ने पर, शीत से रक्षा के निमित्त वह मर्यादा से अधिक वस्त्र रखने की इच्छा नहीं करता और न ही अग्नि से शरीर गर्म करने की भावना ही करता है, यहां तक कि सूर्य ताप में भी बैठने अथवा खड़े होने की आकांक्षा उसके मन में नहीं आती है ।
इसी प्रकार अधिक गर्मी पड़ने पर वह पंखे आदि से हवा नहीं करता, शरीर को शीतलता पहुँचाने की इच्छा भी नहीं करता ।
इन दोनों प्रकार के परीषहों को समभाव से सहन करता है ।
( ५-६ ) दंश-मशक परीषह - डाँस, मच्छर आदि कारण होने वाली पीड़ा को समभाव से सहना, दुर्भाव न लाना, न उन्हें पीड़ित - प्रपीड़ित करना ।
(७) अचेल परीषह - वस्त्र फट गये हों, जीर्ण-शीर्ण हो गये हों अथवा लुटेरों ने छीन लिये हों तो मन में अवसाद न करना और न यह सोचकर
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प्रसन्न होना कि अब नये वस्त्र मिलेंगे, अपितु समभाव में रहना ।
क्षुद्र जन्तुओं के उनके प्रति मन में भी
(८) स्त्री परीषह - स्त्री को बन्धन, पतन, आसक्ति का कारण जानकर उनसे दूर रहना, मन में विकारी भाव न लाना । इसी प्रकार स्त्री
१ (क) समवायांग, समवाय २२, सूत्र १
(ख) उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २, परीषह प्रविभक्ति अध्ययन
(ग) तत्वार्थ सूत्र E / C
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