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३३० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
समाहरणता का अभिप्राय है - बहिर्मुखी प्रवृत्तियों में जाते हुए मन आदि को रोकना और उन्हें अन्तर्मुखी बनाना। उनका सम्यक् प्रकार से व्यवस्थापन या विनियोजन करना।
व्यर्थ के संकल्प-विकल्पों में पड़ा मन अधार्मिक भी होता है और अनैतिक भी। यही स्थिति वचन और काय की भी है।
. अनैतिक इस रूप में कि व्यर्थ का चिन्तन दुश्चिन्तन ही है और ऐसा दुश्चिन्तन अनैतिक ही माना जाता है । (२३-२५.) ज्ञान-दर्शन-चारित्र सम्पन्नता
ज्ञान का अभिप्राय है-भली प्रकार सत्य तथ्य को जानना, दर्शन इस जाने हुए सत्य तथ्य पर विश्वास करना-श्रद्धा रखना और चारित्र इस बताये हुए मार्ग का आचरण करना है। इन तीनों से श्रमण साधक को संपन्न होना आवश्यक है।
यह तीनों ही नैतिक दृष्टि से आवश्यक हैं। क्योंकि ज्ञानी ही श्रेयमार्ग और पाप-मार्ग को जान सकता है, अज्ञानी नहीं जान सकता। नीति का मार्ग भी श्रेय मार्ग है और उस मार्ग को, जानकर ही उसका आचरण किया जा सकता है।
१. अन्नाणी किं काही ? किं वा नाहीइ सेय-पावगं ।
-दशवकालिक सूत्र ४, ६४ २. जिसको नैतिक आचरण कहा गया है, धर्म शास्त्रों में उसे चारित्र की संज्ञा से
अभिहित किया गया है । चारित्र के पाँच भेद हैं(१) सामायिक चारित्र-सभी प्रकार की पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना । (२) छंदोपस्थापनीय चारित्र- सर्व सावद्य त्याग (सर्व पापकारी प्रवत्तियों
का त्याग) का छेदशः विभागशः पंच महाव्रतों के रूप में उपस्थापित
(आरोपित) करना। (३) परिहा रविशुद्धि चारित्र-परिहार (प्राणिवध से निवृत्ति) । इसमें कर्म
कलंक की वि) द्धि विशिष्ट साधना से की जाती है । (४) सूक्ष्मसंपराय चारित्र-इसमें क्रोध, मान, माया ये तीन कषाय उप
शान्त या क्षीण हो जाते हैं और लोभ सूक्ष्म रह जाता है। (५) यथाख्यात चारित्र- इसमें सभी कषाय या तो उपशान्त हो जाते हैं, अथवा क्षीण हो जाते हैं।
--उत्तराध्ययन सूत्र, २८, ३२-३३, पृ० ४८१-८२ के आधार से ३. सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातानि चारित्रम् ।
-तत्वार्थ सूत्र ६, १८
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