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________________ नैतिक चरम | ३२६ क्रिया भी सत्य से ओत-प्रोत होती है। परस्पर इनका कार्य-कारण और अविनाभाव सम्बन्ध है। इन तीनों की सत्यता ही नैतिकता की चरम स्थिति है। (१८) क्षमा क्षमा को दैवी गुण कहा गया है। यह श्रमण का प्रमुख गुण है। क्षमा का अभिप्राय है-क्रोध को निष्फल कर देना । चाहे जितना भी क्रोध का अवसर आये, सामने वाला कितने ही अपशब्द कहे, कैसी ही ताड़नातर्जना करे किन्तु अपने मन में भी क्रोध उत्पन्न न होने देना, नीर के समान शीतल बने रहना।। नीति में क्षमा का बहुत महत्व है। एक नीतिकार ने कहा हैजिसके हाथ में क्षमा रूपी शस्त्र है, उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकते हैं, उनका क्रोध उसी प्रकार शांत हो जायेगा जिस प्रकार तृणरहित स्थान पर गिरने से अग्नि स्वयं ही बुझ जाती है। लोक में भी उक्ति प्रचलित हैअड़ते से चलता बने, जलते से जल होय । गाली सुन बहरा बने, तो कुछ गहरा होय ।। 'गहरे' से प्रस्तुत सन्दर्भ में नैतिक उत्कर्षता का अभिप्राय है । क्योंकि क्षमाशीलता तभी व्यवहार में संभव हो पाती है, जब नैतिकता उसके हृदय की गहराइयों में बसी हो । (१६) विराग विराग का अभिप्राय है-राग की अत्यधिक अल्पता अथवा राग का अभाव। राग अथवा स्नेह कुछ सीमा तक अनैतिक प्रवृत्तियों के प्रति उत्तरदायी होता है। यदि मानव के मन में संसार की किसी भी वस्तु की अल्पतम इच्छा भी शेष होती है तो उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह अनैतिकता भी अपना सकता है, यदि नैतिक साधनों से वह वस्तु प्राप्त न हुई तो। (२०-२२) मन-वचन-काय समाहरणता मन-वचन-काय को अकुशल अथवा व्यर्थ की प्रवृत्तियों से रोककर कुशल अथवा शुभ प्रवृत्तियों में लगाना, मन-वचन-काय समाहरणता है । १. क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति । अतृणे पतितो वन्हिः स्वयमेवोपशाम्यति ।। २. उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६, सूत्र ५६-५६ में समाधारणता शब्द दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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