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________________ ३२८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन स्पष्ट है कि वत्सलता, शिष्टता, मधुरता, संतोष आदि नैतिक प्रत्यय हैं और इनको नष्ट करने वाले--विपरीत गुण-धर्म वाले क्रोध, मान, माया, लोभ अनैतिक अथवा नीति विरोधी प्रत्यय हैं। सच्चाई यह है कि ज्यों-ज्यों इन चारों कषायों की मात्रा कम होती जाती है, ये कषाय न्यून से न्यूनतम होते जाते हैं, व्यक्ति उतना ही नैतिक दृष्टि से उन्नत होता जाता है। चूंकि श्रमण में ये चारों बहत ही अल्प होते हैं, वह इनका विवेक रखता है, इसीलिए उसकी नैतिकता चरम कोटि की होती है, वह नैतिक चरम की स्थिति पर पहुँचा हुआ होता है। (१५) भाव-सत्य __ भाव का अभिप्राय अन्तःकरण की वृत्ति है । जब व्यक्ति के अन्तःकरण में सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है, पूरी तरह जम जाता है तो उसकी आन्तरिक प्रवृत्तियाँ सत्यनिष्ठ हो जाती हैं। ऐसा व्यक्ति धार्मिक और नैतिक-दोनों ही दृष्टियों से चरमावस्था को प्राप्त होता है। . सत्य नीतिशास्त्र का भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण नैतिक प्रत्यय है । वहाँ भी चरम मैतिकता की दृष्टि से सत्य की अन्तःकरण (Conscious and sub-conscious mind) में प्रबल और प्रभावपूर्ण धारणा आवश्यक मानी गई है। (१६) करण-सत्य करण शब्द जैन परम्परा का एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है । इसका अभिप्राय बहुत गहरा है । इसका अभिप्राय है-जिस अवसर पर जो क्रिया करणीय हो, उसे करना। शास्त्रों में इसके पिंडविशुद्धि आदि ७० प्रकार बताये गये हैं। किन्तु नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में इतनी गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं है । यहाँ करण-सत्य का अभिप्राय यह है कि जो भी क्रिया की जाय वह सत्य से ओत-प्रोत हो । (१७) योग-सत्य. योग का अभिप्राय है मन-वचन और काया की प्रवृत्तियाँ । योगसत्य में मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों में थोड़ी भी कुटिलता अपेक्षित नहीं है; तीनों ही सरल और सत्य से ओत-प्रोत हों। भाव-सत्य, करण-सत्य और योग-सत्य–तीनों ही परस्पर-सापेक्ष हैं । अन्तःकरण की सत्यता से योग ऋजु-सरल होते हैं और इनसे प्रभावित १. कज्जे सच्चेण होयव्वं-निशीथभाष्य. ५२४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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