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________________ नैतिक चरम | ३२७ इन पाँचों इन्द्रियों की रचना ही ऐसी है कि ये बाह्यमुखी बनी हुई हैं । स्पर्शन इन्द्रिय अनुकूल स्पर्श पाने को लालायित रहती है तो रसना इन्द्रिय मधुर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने को लपकती है । घ्राणेन्द्रिय सदा ही सुगन्ध सूंघना चाहती है, सेन्ट, परफ्यूम आदि का निर्माण इसकी तृप्ति के लिए हो रहा है । चक्ष ु इन्द्रिय सुन्दर रूपों - दृश्यों को देखने के लिए ललचाती है । श्रोत्र न्द्रिय सदा ही प्रिय मधुर शब्द सुनना चाहती किन्तु इन इन्द्रियों की बाह्यमुखी प्रवृत्ति अध्यात्म-साधना में तो विघ्न है ही, अनैतिक भी है। किसी स्त्री के सुन्दर मुख को टकटकी लगाकर देखना कितना अनैतिक है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों को भी खुला छोड़ देने का दुष्परिणाम मानव को कटुफल के रूप में भोगना पड़ता है । श्रमण के लिए आवश्यक है कि वह इन पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करे, इन्हें इनके विकारों और विषयों में प्रवृत्ति न करने दे । नीतिशास्त्र की अपेक्षा भी विषय विकार नैतिक अधःपतन के मार्ग हैं | (११-१४), कषाय-विवेक कषाय चार हैं - (१) क्रोध, (२) मान (३) माया ( कपट) और ( ४ ) लोभ । धर्म की दृष्टि से तो कषाय त्याज्य हैं ही, सामाजिक, नैतिक यहाँ तक शिष्टाचार की दृष्टि से भी यह अनाचरणीय हैं । क्रोध को तो शास्त्रों में और यहाँ तक कि सामान्य जनता द्वारा चंड, रुद्र कहा गया है । मान सदा अवनतिकारक होता है, कपट हृदय की सरलता का नाश कर देता है । लोभी व्यक्ति सर्वत्र अनादर का पात्र बनता है । यदि लोभ की और इसी प्रकार इन चारों कषायों की तीव्रता हुई तो व्यक्ति को अनैतिक बनते देर नहीं लगती । दवैकालिक सूत्र में इन चारों कषायों को पाप बढ़ाने वाली कहा गया । क्रोध आत्मा में आत्मौपम्य भाव या वत्सलता, जो जीवन का अमृत है उसे नष्ट करता है । मान से विनय जो जीवन की रसिकता है, जिससे व्यक्ति शिष्ट और नैतिक समझा जाता है, उस विनय का ही नाश हो जाता है । माया ( कपट) द्वारा मित्रता जो जीवन का मधुर अवलम्बन है, वह आधार ही नष्ट - विनष्ट हो जाता है तथा लोभ, संतोष जैसे नैतिक और आध्यात्मिक गुण को समाप्त कर डालता है | १ दशकालिक अ० ८, गाथा ३६-३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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