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________________ ३२४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (५) अपरिग्रह महाव्रत परिग्रह, जैन शास्त्रो के अनुसार मूर्च्छा है । मात्र बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं हैं, अपितु उन पदार्थों में आसक्ति, ममत्वभाव, मेरेपन की भावना ही परिग्रह है । मानव जीवन के लिए भी, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाह्य पदार्थों का उपयोग उसी प्रकार अनिवार्य है, जैसे स्टीमर के लिए सागर की अनन्त जल - राशि । जब तक जल स्टीमर के नीचे रहता है, वह स्टीमर को गतिशील बनाये रखने में सहायक होता है; किन्तु जैसे ही स्टीमर के अन्दर जल का प्रवेश हुआ कि वह उसे सागर की अतल गहराइयों में डुबा भी देता है । यही स्थिति परिग्रह की है । जब तक पदार्थ उपयोग की सीमा तक रहते हैं तब तक वे साधक की साधना में सहायक बनते हैं और ज्योंही उन पदार्थों के प्रति साधक के मन में मूर्च्छाभाव उत्पन्न हुआ, यानी उन पदार्थों का प्रवेश भावना, लालसा, आसक्ति के मार्ग से साधक के हृदय में हुआ कि उसकी भी समस्त साधना चौपट हो जाती है, वह साधना के उच्च स्थान से, नैतिक चरम से पतित हो जाता है | वास्तव में अपरिग्रह एक अपेक्षा से अनासक्ति ही है । इस दृष्टिकोण से धन-वैभव के अपार भंडार होते हुए भी व्यक्ति अल्प परिग्रही हो सकता है, यदि उसके हृदय में उस वैभव के प्रति अनासक्ति हो । इसके विपरीत एक निर्धन व्यक्ति, यदि उसके पास तन ढकने को वस्त्र भी न हों, नखाने को पूरा अन्न हो और न रहने को झौंपड़ी ही हो, फिर भी वह महापरिग्रही होता है, यदि उसके हृदय में पदार्थों के प्रति गृद्धता हो, उसकी लालसाएँ, इच्छाएँ असीमित हों । 2 जैन शास्त्रों ने सिर्फ बाह्य पदार्थों को ही परिग्रह नहीं माना अपितु उन भावनाओं और इच्छाओं तथा आवेग संवेगों को भी परिग्रह में ही परिगणित किया है, जिनके कारण उसकी धर्म-साधना में, नैतिकता में और नैतिक आचार-विचार-व्यवहार में तनिक भी व्यवधान पड़ता है । १ (क) न सो परिग्ग हो वृत्तो नायपुत्त्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ॥ (ख) मूर्च्छा परिग्रहः । मुर्च्छाच्छन्नधियां सर्वं जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु, जगदेवापरिग्रहः ॥ उद्धृत - श्री देवेन्द्र मुनि: जैनाचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ ८५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक ६, २० – तत्वार्थ सूत्र ७, १० www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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