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________________ नैतिक चरम | ३२५ इस दृष्टिकोण से परिग्रह के दो भेद हैं- (१) अन्तरंग और (२) बाह्य । अन्तरंग परिग्रह १४ हैं - ( १ ) मिथ्यात्व ( गलत धारणा अथवा विचारधारा), (२) वेद (स्त्री, पुरुष अथवा दोनों से काम सेवन की इच्छा ), (३) राग (आकर्षण - आसक्ति), (४) द्वेष ( दुश्चिन्तन), (५) क्रोध, (६) गान, (७) माया ( कपट), (८) लोभ, (६) हास्य, (१०) रति (लगाव), (११) अरति (उद्व ेग), (१२) भय, (१३) शोक, (१४) जुगुप्सा । ये सभी अन्तरंग परिग्रह नीतिशास्त्र के अनुसार अनैतिक प्रत्यय हैं । गलत धारणा, आसक्ति, दुश्चिन्तन, उद्व ेग, शोक, किसी की हँसी उड़ाना, मजाक बनाना, कपट करना आदि सभी अनैतिकता के जनक और अनैतिक प्रवृत्तियों - व्यवहारों को बढ़ाने वाले हैं । कामेच्छा, क्रोध, अभिमान आदि तो स्पष्ट ही अनैतिक हैं । श्रमण इन चौदह अन्तरंग परिग्रहों का संपूर्णतः त्याग कर देता है । क्योंकि परिग्रह को ग्रन्थ अथवा गाँठ कहा गया है और मण निर्ग्रन्थ होता है, उसके हृदय में- अंतरंग जीवन में कोई ग्रंथि नहीं होती । बाह्य परिग्रह के अनगिनत प्रकार हैं- किन्तु आचार्यों ने क्ष ेत्र, वास्तु, स्वर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य इन भेदों में वर्गीकृत किया है | आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इसका दस किया है । किन्तु ये सभी भेद श्रावक की अपेक्षा से हैं। का कोई भी परिग्रह नहीं रखते हैं । भेदों में वर्गीकरण श्रमण इस प्रकार गृहस्थ के लिए ये बाह्य परिग्रह बन्धन के कारण होते हैं, क्योंकि आन्तरिक इच्छा के कारण वह इनका संग्रह करता है । १ (क) प्रश्नव्याकरण सूत्र टीका, पृष्ठ ४५१ (ख) कोहो माणो माया लोभों, पेज्जं तहेव दोसो य । मिच्छत्त वेद अरइ, रइ हासो सोगो भय दुगंच्छा || २ ३ (ग) मिच्छत्त वेद रागा, हासादि भय होंति छद्दोसा । चत्तारि तह कसाया, चोस अब्भंतरा गंथा ॥ आवश्यक हारिभद्रया वृत्ति अ० ६ खेत्तं वत्थु धण धन संचओ मित्त णाइ संजोगी । जाणणासणाणि य, दासी दास च कुव्वयं ॥ Jain Education International - प्रतिक्रमणत्रयी, पृ० १७५ - बृहत्कल्पभाष्य ८३१ For Personal & Private Use Only - बृहत्कल्प भाष्य ८२५ www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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