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नैतिक चरम | ३२३
और श्रमण यदि
आदि का साधन भी नहीं है, जिससे उसे बचाया जा सके, तैरना जानता है तो वह उसे डूबने से बचा सकता है । इसी प्रकार वह क्षिप्तचित्त श्रमणी को पकड़ सकता है । 2 सर्पदंश की स्थिति में श्रमण श्रमणी से और श्रमणी श्रमण से अवमार्जन करा सकती है । पैर में कांटा चुभ जाने पर भी ऐसा ही विधान है । 4 किन्तु इन सब परिस्थितियों के लिए अनिवार्य है कि अन्य कोई साधन - - यथा श्रमणी के लिए स्त्री और श्रमण के लिए पुरुष उपलब्ध न हो और स्थिति अत्यन्त विषम बन चुकी हो । ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक, मानसिक, शारीरिक आदि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । इसके पालन से शरीर का ओज-तेज बढ़ता है, जिससे साधक साधना में तेजस्वी होता है ।
नैतिक दृष्टि से तो इसका अत्यधिक महत्व है । सामान्य गृहस्थ भी ब्रह्मचर्य पालन से नैतिक माना जाता है, जिसमें श्रमण साधु के लिए तो यह अनिवार्य ही है ।
अपवाद के रूप में जो विशिष्ट नियम निर्धारित किये गये हैं उनका आधार नीति है । यह प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह पीड़ित व्यक्ति को पीड़ामुक्त करने का भरपूर प्रयास करे । श्रमण अथवा श्रमणी तो मानवता के मूर्तमन्त होते हैं । यदि श्रमण डूबती हुई, सर्पदंश से पीड़ित अथवा काँटे चुभने की वेदना से व्यथित श्रमणी की और भी श्रमण की उपेक्षा कर दे तो यह घोर अमानवीय और अनैतिक होगा ।
इसी तरह श्रमणी
फिर सेवा, वैयावृत्य, अन्य श्रमण श्रमणियों को सुख- साता पहुँचाना तो जैन संघ का अनिवार्य नियम है और तप भी है । इसे प्राथमिकता दी गई है । इसकी उपेक्षा करना श्रमणत्व से और यहाँ तक कि नैतिकता से भी पतित होना है ।
यही कारण है कि ब्रह्मचर्य महाव्रत में भी नैतिकता की उपेक्षा नहीं की गई है । श्रमण संघ के नियामक नैतिकता के प्रति जागरूक रहे हैं ।
१. बृहद्कल्प सूत्र उ० ६, सूत्र ७-१२ ।
२ . वही, उ० ६, सूत्र ७-१२ ।
३. व्यवहार सूत्र उ०५, सूत्र २१ ।
४. बृहद्कल्प सूत्र, उ० ६, सूत्र ३ ।
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