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३२२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
कृतांग सूत्र में उत्तम तप' कहा गया है । इसीलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त नवबाड़ का विधान किया गया है और साधु-साध्वी इन बाड़ों का बड़ी तत्परता और अत्यधिक जागरूकता के साथ पालन करते हैं ।
ब्रह्मचर्यं का माहात्म्य प्रगट करते हुए कहा है कि दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को देव, दानव, गन्धर्व आदि सभी देवगण नमस्कार करते हैं । इसे नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व आदि का मूल भी कहा गया है । 4
और महत्व वर्णित
ब्रह्मचर्य की महिमा सभी धर्मों में गाई गई है । जैन परम्परा में जो इसका इतना माहात्म्य किया गया है, उसका हार्द यही है कि श्रमण इस ब्रह्मचर्य महाव्रत का पूर्ण रूप से, निरपवाद पालन करे, इसमें किंचित भी दोष न लगने दे । यद्यपि सामान्यतः शास्त्रों में ब्रह्मचारी के लिए स्त्री मात्र का स्पर्श भी वर्जित बताया गया है । किन्तु यदि कोई साध्वी नदी अथवा तालाब में डूब रही है, अन्य कोई स्त्री अथवा पुरुष पास में नहीं है, नौका
१ तवेसु वा उत्तम बंभ चेरं ।
२ ( क ) उत्तराध्ययन सूत्र, १६, ३-१२
(१) विविक्त शयनासन (२) स्त्रीकथा परिहार ( ३ ) निषद्यानुपवेशन (४) स्त्री अंगोपांग अदर्शन ( ५ ) कुड्यान्तर ( दीवार आदि की आड़ से ) शब्द श्रवण-विवर्जन (६) पूर्व भोग स्मरण - वर्जन ( ७ ) प्रणीत भोजन त्याग ( ८ ) अति भोजन त्याग (ह) विभुषा वर्जन ।
रस,
(ख) पंडित आशाधर ने अनगार धर्मामृत ( ४, ६१ ) में दस नियम बताये हैं(१ रूप, गंध और शब्द में रस न लेना ( २ ) जननेन्द्रिय में विकार उत्पन्न करने वाले कार्य न करना ( ३ ) कामोद्दीपक आहार न करना ( ४ ) महिलाओं द्वारा उभोग किए हुए शयन आसन आदि का उपभोग न करना ( ५ ) स्त्रियों के कामोद्दीपक अंगों को न देखना (६) स्त्रियों का सत्कार न करना (७) अपने शरीर का संस्कार न करना ( ८ ) पूर्व (गृहस्थाश्रम में ) सेवित रति का स्मरण न करना (E) भविष्य में काम-क्रीड़ा की किंचित् भी इच्छा न करना (१०) इष्ट रूप आदि में मन को संयुक्त न करना ।
३. उत्तराध्ययन सूत्र १६, १६ ।
४. प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार, अध्ययन ४ ।
— सूत्रकृतांग सूत्र, अध्ययन ६
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