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________________ नैतिक चरम | ३२१ (३) अस्तेय महावत अस्तेय को जैन आगमों में 'दत्तादान' कहा गया है और इसके विपरीत स्तेय को अदत्तादान । श्रमण अस्तेय महाव्रत को ग्रहण करते समय प्रतिज्ञा करता है-मैं आज से समस्त प्रकार के अदत्तादान का त्याग करता हूँ। वह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से-ग्राम में, नगर में, अरण्य में (कहीं भी), सचित्त या अचित्त, स्थूल अथवा सूक्ष्म कोई भी पदार्थ बिना दिये ग्रहण नहीं करता । यहाँ तक कि अपने ठहरने योग्य स्थान भी उसके स्वामी की अनुमति से लेता है, उसकी पूर्व अनुमति पाकर ही वह ठहर सकता है। किन्तु ऐसी परिस्थिति हो जाय कि श्रमण ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहां अन्य स्थान की सुविधा नहीं हो, भयंकर शीत अथवा वर्षा हो तो वह पहले ठहर जाय और बाद में आज्ञा लेने का प्रयास करे । विशेष परिस्थिति में श्रमण को जो यह अपवाद नियम दिया गया, वह उन परिस्थितियों में आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । यदि सर्दी लग जाने से वह बीमार हो जाता, ज्वर से आक्रान्त हो जाता तो उसकी संयम-साधना की निर्बाधता में विघ्न उपस्थित हो सकता था। यह सुविधा शरीर की दृष्टि से नहीं, अपितु संयम-साधना की दृष्टि से दी गई है। इसी अपेक्षा से यह नैतिक है। (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत श्रमण नवकोटि ब्रह्मचर्य का पालन करता है । वह नारी जाति का, चाहे वह मानवी हो, देवी हो अथवा मादा पशु हो, न मन में चिन्तन करता है, न ऐसे वचन ही बोलता है और न शरीर से स्पर्श ही करता है, यहाँ तक कि नवजात बालिका का स्पर्श भी वह नहीं करता। ऐसा ही नियम श्रमणी अथवा साध्वी के लिए पुरुष जाति के प्रति है, वह भी पुरुष मात्र का स्पर्श नहीं करती। ब्रह्मचर्य का जैन साधना में अतिमहत्वपूर्ण स्थान है। इसे सूत्र १. आचारांग सूत्र, श्रु तस्कन्ध २, अ० ७, उ० १, सूत्र ६०७ २. दशवकालिक सूत्र, अध्ययन ४, सूत्र १३ ३. (क) व्यवहार सूत्र ६, ११ (ख) श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ५१५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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