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३२० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
वस्तु स्थिति यह है कि उत्सर्ग मार्ग में निर्धारित नियम तो वे सामान्य नियम हैं जिनका सामान्य परिस्थितियों में पालन किया जाना अनिवार्य है, किन्तु विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट नियमों का अनुपालन किया जा सकता है। प्रथम रूप धर्म है और दूसरा तत्कालीन विशिष्ट परिस्थिति में आचरण करने से नीति है । (२). सत्य महाव्रत
सामान्यतः साधु नव कोटि से सत्य का आचरण करता है। उसके मन-वचन काय में रग-रग में सत्य का वास होता है। किन्तु ऐसी परिस्थिति आ जाये, जैसे-श्रमण वन में विहार करके जा रहा है, उस समय कोई शिकारी उससे पूछे कि अमुक पशु (उदाहरणार्थ हिरन) किधर गया है तो साधु मौन रहे, लेकिन मौन से यदि काम न चले, अथवा मौन स्वीकृतिसूचक हो जाये तो साधु विपरीत दिशा में संकेत कर दे अथवा नहीं जानता हूँ, ऐसा कह दे ।
___ इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है कि श्रमण के हृदय में सत्य के प्रति आदर नहीं होता । अपितु जैन अंग शास्त्र प्रश्नव्याकरण में तो सत्य को भगवान कहा गया है और यहाँ तक कि गौतम गणधर भी आनन्द श्रावक से अपने असत्य कथन के लिए क्षमा मांगते हैं। भगवान महावीर का स्पष्ट सन्देश है कि सत्य का वरण करने वाला साधक सभी कर्मों को क्षय कर देता है, संसार से पार हो जाता है ।
अतः यहाँ अपवाद रूप में श्रमण द्वारा असत्य कथन किसी जीवधारी की रक्षा के निमित्त ही किया गया है । यह सत्य को गौण करके अहिंसा महाव्रत की रक्षा के निमित्त ही असत्य कथन हुआ है। और ऐसा असत्य नीति के अन्तर्गत भी नैतिक माना जाता है।
१. (क) देखिए-आचारांग २, ३, ३, सूत्र ५१० तथा वृत्ति ।
-जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा (ख) निशीथचूणि, भाष्य, गाथा ३२२ । २. सच्चं खु भगवं ।
-प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार, अध्ययन २, ३. (क) उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन १,
(ख) मुनि श्री कन्हैयालाल जी कमल : चरणानुयोग, सूत्र १०६, पृ० १५७ ४. आचारांग सूत्र १, ३, २; १, ३,३
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