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नैतिक चरम | ३१६
करना, उसे मौन अनुमति देना, काया से ऐसी चेष्टा करना अथवा संकेत करना जिससे अनुमति की प्रतीति हो ।
योग तीन हैं-(१) मन (२) वचन और (३) काया ।
श्रमण क्योंकि अपने सभी महाव्रतों का तीन करण तीन योग से पालन करता है अथवा सिक्के के दूसरे पहलू की दृष्टि से कहा जाय तो हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों पापों अथवा अनैतिकताओं को तीन करण तीन योग से त्यागता है, प्रत्याख्यान करता है, इसलिए इसका प्रत्याख्यान नव कोटि प्रत्याख्यान कहलाता है । (१). अहिंसा महाव्रत
अहिंसा सार्वभौम है । यह धर्म तो है ही, नीति का भी प्रमुख प्रत्यय है । सभ्य संसारव्यापी धर्मों और नीतियों की आधारशिला ही यही है । धर्म के रूप में यह समत्व का आधार है, यानी समताभाव ही अहिंसा है। संसार के सभी प्राणियों के प्रति समानता का भाव रखना, अपने-पराए की भेद-दृष्टि से दूर रहना अहिंसा धर्म है ।
नीति के रूप में अहिंसा कर्म-अकर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक कराती है । सद्-असद् प्रवृत्ति का निर्णय करती है ।
श्रमण अहिंसा का पालन बड़ी सूक्ष्मता से करता है। चलते-फिरते जीवों को तो किसी प्रकार का कष्ट देता ही नहीं, यहाँ तक कि वह हरित वनस्पति (plants of green regetables) को भी स्पर्श नहीं करता क्योंकि स्पर्श-मात्र से भी उसे पीड़ा होती है। यह उत्सर्ग मार्ग है ।
किन्तु यदि कोई श्रमण पर्वत पर चढ़ या उतर रहा है, अथवा ऐसी स्थिति आ जाय कि वह अपना सन्तुलन न रख सके, गिरने लगे तो वह किसी वृक्ष को पकड़ सकता है । यह अपवाद मार्ग अथवा नीति है।'
इसमें हेतु यह है कि गिरने से श्रमण को चोट लग सकती है, उसके पैर की हड्डी टूट सकती (fracture) है, अन्य कीड़े-मकोड़े (creatures) क्षद्र प्राणियों की हिंसा भी हो सकती है। उन सबकी रक्षार्थ ही अपवाद मार्ग अथवा नीति का नियम अहिंसा महावत के सन्दर्भ में निरूपित किया गया।
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१. देखिए-आचारांग, श्रुतस्कन्ध २ ईर्याध्ययन ।
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