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________________ ३१८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन से व्यावहारिक निर्णय करने पड़े। ये निर्णय ही अपवाद-मार्ग कहलाए । चूंकि वे निर्णय उत्सर्ग मार्ग के पूरक और श्रमण के आन्तरिक जीवन की शुद्धि-वृद्धि, संरक्षा-सुरक्षा में सहायक थे अतः दोनों को ही अविरोधी माना गया। यहाँ यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी आवश्यक है कि अपवाद का सेवन विवशतापूर्वक किया जाता है। साधक यह अच्छी तरह जानता है—यदि मैं अपवाद का सेवन नहीं करूंगा तो मेरे ज्ञान आदि गुण विकसित नहीं हो सकेंगे। उसी दृष्टि से वह अपवाद का सेवन करता है । अपवाद के सेवन करने में सद्गुणों का अर्जन और संरक्षण प्रमुख लक्ष्य होता है । अपवाद में कषाय भाव नहीं होता, संयमभाव प्रमुख होता है। ___ अपवाद मार्ग को हम 'आपत्ति काले मर्यादा नास्ति' नहीं मान सकते । बल्कि यह विपरीत परिस्थिति व विकट समस्या का विवेकयुक्त समाधान माना जा सकता है। इस दृष्टि से अपवाद-मार्ग को श्रमणाचार में नीति की संज्ञा दी जा सकती है । इसी दृष्टिकोण के आधार पर श्रमण के २७ गुणों का विवेचन आध्यात्मिक, धार्मिक और नीति संबन्धी विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है । श्रमण के २७ गणों का विवेचन समवायांग सूत्र में निरूपित श्रमण के २७ गुण हैं-(१-५) पांच महाव्रत, (६-१०) पांच इन्द्रियों का निग्रह (११-१४) चार कषाय विवेक (१५-१७) तीन सत्य (१८) खंति-क्षमा (१६) विरागता (२०) मनसमाधारणता (२१) वचन समाधारणता (२२) कायसमाधारणता (२३) ज्ञानसम्पन्नता (२४) दर्शनसंपन्नता (२५) चारित्रसम्पन्नता (२६) वेदना समाध्यासना (२७) मारणान्तिक समाध्यासना। पाँच महाव्रत श्रमण के लिए पालनीय पाँच महाव्रत हैं-(१) अहिंसा महावत (२) सत्य महाव्रत (३) अस्तेय महाव्रत (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत और (५) अपरिग्रह महाव्रत । श्रमण इन महाव्रतों का पालन तीन करण और तीन योग से कहता है। करण का अभिप्राय है-प्रवृति के साधन । ये तीन हैं-(१) कृतस्वयं करना (२) कारित-किसी दूसरे को आज्ञा अथवा प्रेरणा देकर उससे करवाना और (३) अनुमोदन-किसी दूसरे द्वारा किये हुए कार्य की प्रशंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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