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________________ नैतिक चरम | ३१५ आत्मा ही अपने सुख-दुख का कर्ता और विकर्ता (विनाशकर्ता) है । सुप्रस्थित (सत्प्रवत्ति में स्थित-सत्प्रवृत्ति करने वाला) आत्मा ही अपना (स्वयं का) मित्र है और दुःप्रस्थित (दुष्प्रवृत्ति करने वाला) आत्मा ही अपना (स्वयं का) शत्र है ।। इसी भाव को स्वामी विवेकानन्द ने इन शब्दों में व्यक्त किया है__ मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है । श्रमण की ये तीनों विशेषताएँ-(१) सम, '२) शम और (३) श्रम, नीति–के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। समभाव में रहने वाला व्यक्ति ही नीति का पालन कर सकता है। व्यक्ति यदि किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वष के व्यामोह में फंस गया तो वह किसी एक का प्रिय करेगा और दूसरे का अप्रिय । ऐसी दशा में वह एक अनैतिक व्यक्ति को भी लाभ पहुँचा सकता है, और दूसरे नैतिक व्यक्ति को हानि भी । तब उसकी नैतिकता कहाँ सुरक्षित रहेगी ? इसीलिए श्रमण में समभाव अनिवार्य है। शम की नैतिकता तो और भी स्पष्ट है। शम का अभिप्राय है-क्रोध आदि कषाय-मानसिक संक्लेशों का अभाव-उपशमन । संसार में जितने भी प्रकार की अनैतिकताएं हैं या की जाती हैं, उन सभी का मूल ये कषाय ही हैं । कषाय का तनिक-सा आवेश भी मन-मस्तिष्क में आया कि मानव नैतिकता से गिरा, उसका आचरण व्यवहार सभी कुछ अनैतिक हो गया। श्रम का महत्व सर्वविदित है । जिस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में श्रम की महत्ता प्रतिष्ठित हो जाती है, अनैतिकता स्वयं ही पलायन कर जाती है । जब व्यक्ति को विश्वास हो जाता है कि अपने किये कर्मों का फल मुझे ही भोगना पड़ेगा तो वह स्वतः की प्रेरणा से ही अनैतिकता का त्याग कर देता है । इसीलिए श्रम में विश्वास करने वाले व्यक्ति अधिक नीतिनिष्ठ होते हैं। श्रम का दूसरा महत्व है-पुरुषार्थ जाग्रत करना । पुरुषार्थवाद बनाम भाग्यवाद नैतिकता और नीतिशास्त्र का प्रमुख वाद भी है और प्रत्यय भी । भाग्य के भरोसे रहने वाला व्यक्ति अकर्मण्य और आलसी बन जाता है। जबकि पुरुषार्थवादी सतत कर्तव्यशील और उद्यम में निरत । १. उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७ P. Man is the maker of his destiny.--Swami Vivekanand. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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