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________________ ३१६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन कर्तव्यशीलता को नीतिशास्त्र में शुभ प्रत्यय कहा गया है । नैतिकता के लिए यह आवश्यक-मूलभूत बिन्दु है। जैन ग्रंथों में श्रमण के लिए कहा गया है सममणइ तेण सो समणो 'सममणइ' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा हैसममणती ति–तुल्यंवर्तते यतस्तेनासौ समण इति । जो सब जीवों के प्रति समान भाव रखता है, वह श्रमण है । इसीलिए कहा गया है कि 'श्रमण सुमना होता है, पापमना नहीं। पाप का अभिप्राय अनैतिकता है। धर्मशास्त्रों में जिसे 'पाप' संज्ञा दी गई है, नीतिशास्त्र उसे ही बुराई (evil) कहता है, जो कि श्रमण में बिल्कुल नहीं होती-सु-मना के रूप में वह सबके प्रति सद्भाव, कल्याण भावना, हितदृष्टि आदि रखते हुए नैतिक चरम (Ethical utmost) की स्थिति पर अवस्थित रहता है। श्रमण के सत्ताइस गुण जैन शास्त्रों में श्रमण के २७ गुण बताये गये हैं। यद्यपि शास्त्रों में इनका वर्णन धार्मिक दृष्टिकोण से किया गया है, किन्तु जैसा पूर्व पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि इस स्थिति पर आकर नीति धर्म बन जाती है, अतः इस दृष्टिकोण से इन गुणों का नीतिपरक महत्व भी है। आगे की पंक्तियों में श्रमण के सत्ताइस (२७) गुणों का महत्व धर्म और नीति दोनों ही दृष्टिकोणों से वर्णित किया जा रहा है। उत्सर्ग और अपवाद मार्ग इस वर्णन से पूर्व एक बात जान लेना आवश्यक है कि श्रमणाचार (श्रमण के व्यावहारिक आचार) के दो मार्ग शास्त्रों में वर्णित हैं-(१) १. अनुयोगद्वार सूत्र, उपक्रमाधिकार २. उद्धृत, उपाध्याय अमरमुनि : श्रमण सूत्र, पृष्ठ ५५ ३. (क) समवायांग, समवाय २७, सूत्र १ (ख) पंचमहव्वयजुत्तो पंचिंदिय संवरणो। चउव्विह कसायमुक्को तिओ समाधारणीया । तिसच्च सम्पन्नतिओ खंति संवेगरओ । वेयणमच्चुअहियासणा साहुगुणा सत्तवीसं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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