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________________ ३०८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन ciation of lust) होता है। आसक्ति प्रमुखतया तीन प्रकार की होती है-- १. कामासक्ति (lust of desire) २. भोगासक्ति (lust of enjoyment) और ३. देहासक्ति (Infatuation to one's own body). __इच्छा अथवा आसक्ति (desire or will) नीतिशास्त्रीय प्रत्यय हैं। वह इच्छा जो अशुभ हो, हानिकारक हो, उसे अशुभ प्रत्यय कहा जाता है । इच्छाओं के वश में चलने वाला व्यक्ति नीति के चरम उत्कर्ष या, आदर्श तक नहीं पहुँच पाता । काम-भोग में अधिक आसक्ति तथा अपने शरीर से अत्यधिक ममत्व नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अनुचित हैं। इस प्रतिमा में इन्हीं का त्याग होता है। ___(६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-इसमें साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। वह ऐसा मनोविनोद या मजाक भी नहीं करता जो तनिक भी कामवासना की ओर संकेत करता हो, स्त्री के साथ एकान्त में बैठता भी नहीं, स्त्रियों से अधिक परिचय व संसर्ग भी नहीं करता। ___ ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं तो नैतिक दृष्टि से भी इसका कम महत्व नहीं है । जितेन्द्रियता व्यक्ति को नैतिक चरम तक ले जाने का महत्वपूर्ण साधन है। जितेन्द्रियता अथवा वासना-नियन्त्रण सामाजिक दृष्टि से नैतिकता का मापदण्ड है। जितेन्द्रिय पुरुष को ही लोग नैतिक मानते हैं और उसी रूप में उसको सम्मान प्राप्त होता है। ___ (७) सचित्तत्याग प्रतिमा- इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक जल के अतिरिक्त अन्य सभी सचित्त वस्तुओं का त्याग कर देता है। यह प्रतिमा वस्तुतः व्यक्तिगत आवश्यकताओं और इच्छाओं को सीमित करती है। आवश्यकता (Necessities) कम होना, नैतिक जीवन बिताने के लिए सरल और सुगम मार्ग प्रस्तुत करता है। (८) आरम्भत्याग प्रतिमा-सातवीं प्रतिमा में साधक अपनी निजी आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से कम कर लेता है, वह bare necessities तक ही सीमित रह जाता है; किन्तु इस प्रतिमा में वह व्यापार आदि का भी त्याग कर देता है, सारा उत्तरदायित्व दूसरों को सौंप कर स्वयं निवृत्ति की ओर उन्मुख होता है। यद्यपि धार्मिक दृष्टि से आरम्भ का अर्थ हिंसात्मक क्रिया है; किन्तु ऐसे व्यापार भी हो सकते हैं जिनमें हिंसा हो ही नहीं। यथा-नैतिक, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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