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________________ नैतिक उत्कर्ष | ३०७ जीवन भी निर्दोष हो जाता है, क्योंकि वह माया ( छल-कपट ), मिथ्या ( गलत दृष्टिकोण) और निदान ( व्रत के भौतिक लाभ की आकांक्षा या भोगाकांक्षा - अभीप्सा, अभिलाषा) को त्याग चुका होता है । इस कारण उसके जीवन में अनैतिकता का प्रवेश नहीं हो पाता। वह सर्वदा नीतिपूर्णं व्यवहार करता है । (३) सामायिक प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारक उल्लासपूर्वक सामाfor करता है, देशावकाशिक व्रत का भी पालन करता है और पौषधोपवास व्रत का भी । मास में ६ पौषध करता है - २ अष्टमी, २ चतुर्दशी, १ अमावस्या और १ पूर्णिमा | सामायिक प्रतिमाधारी सद्गृहस्थ की कषायें अत्यन्त मंद हो जाती हैं, दैनिक - व्यावहारिक जीवन में भी वह समत्व भाव रखता है, क्रोध के प्रसंग पर भी क्रोध नहीं करता, समझा-बुझाकर मधुर नीति से काम निकालता है । इस प्रकार उसका नैतिक शुभ का आचरण और भी दृढ़ हो जाता है । (४) पौषध प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक प्रतिपूर्ण पोषध व्रत करता है। तथा इस प्रतिमा के पालन में गृहस्थ निवृत्ति की ओर अपने चरण बढ़ाता है । जब तक वह इस प्रतिमा का पालन करता है तब तक सभी प्रकार के अशुभ अध्यवसायों से दूर रहता है । मानसिक, वाचिक और कायिक, उसकी सभी प्रकार की क्रियाएँ शुभ ही होती हैं, वह शुभ से शुभतर और परम शुभ की ओर बढ़ता है । यही इसका नीतिशास्त्रीय महत्व है । (५) नियम प्रतिमा - इस प्रतिमा में साधक प्रमुख रूप से पाँच नियमों का पालन करता है (i) स्नान नहीं करना (ii) धोती की लाँग नहीं लगाना (iii) रात्रि में भोजन (यहां तक पानी भी ) नहीं पीना (iv) दिन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात्रि में भी यथासम्भव ब्रह्मचर्य का पालन करना । (v) एक माह में एक रात कायोत्सर्ग की साधना करना । नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से इस प्रतिमा में आसक्ति त्याग ( renun Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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