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३०६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
ग्रहत्याग (१०) उद्दिष्टभक्तत्याग ( ११ ) श्रमणभूत |
( १ ) दर्शन प्रतिमा - दर्शन का अर्थ है - दृष्टिबिन्दु अथवा दृष्टिकोण | आध्यात्मिक भाषा में इसे सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
इस प्रतिमा को धारण करने वाले का दृष्टिकोण एकदम यथार्थ अनेकान्तग्राही होता है । वह तत्व - अतत्त्व, शुभ -अशुभ, कर्तव्य अकर्तव्य को भली-भाँति जानता है, इनके मर्म को पहचानता है और अनाग्रह बुद्धि से स्वीकार करता है ।
उसके विवेक चक्षु खुल जाते हैं । विवेक को कुंठित और मलिन करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों के आवेग संवेग शिथिल और मंद पड़ जाते हैं । उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है । वह अनाग्रही तो होता है किन्तु अपने सत्य दृष्टिकोण के प्रति इतना दृढ़ आस्थाशील भी होता है कि कैसी भी विषम परिस्थिति आवे वह अपने श्रद्धान – सम्यक् श्रद्धा से रंचमात्र भी विचलित नहीं होता, न ही संशयशील होता है ।
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(२) व्रत प्रतिमा- इसमें श्रावक पाँच अणुव्रतों का तो सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उनमें किसी प्रकार का दोष नहीं लगने देता । तीन व्रत का भी अभ्यास करता है । किन्तु सामायिक आदि चारों शिक्षाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन नहीं कर पाता । इसमें परिस्थितियाँ कारण बन जाती हैं । किन्तु उसकी श्रद्धा - प्ररूपणा सम्यक् होती है ।
यह प्रतिमा नैतिक दृष्टि से विधानात्मक है । अणुव्रतों का निर्दोष पालन नैतिक आचरण में दृढ़ता ही सूचित करता है । उसका व्यावहारिक
९. ( क ) दशाश्रुत स्कन्ध छठी दशा
(ख) विंशिका - १०वीं ; लेखक हरिभद्रसूरि
(ग) दिगम्बर परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम और क्रम कुछ भिन्न हैं(१) दर्शन ( २ ) व्रत ( ३ ) सामायिक ( ४ ) पौषध ( ५ ) सचित्तत्याग ( ६ ) रात्रिभुतित्याग ( ७ ) ब्रह्मचर्यं ( 5 ) आरम्भत्याग ( 8 ) परिग्रहत्याग (१०) अनुमतित्याग और (१२) उद्दष्टित्याग |
— देखें, समन्तभद्र कृत श्रावकाचार, वसुनन्दि श्रावकाचार आदि
२. पंचाणुव्वय धारित्तमणइयारं वएसु पडिबंधो ।
वयणा तदणइयारा वयपडिमा सुप्पसिद्ध त्ति ॥
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- विंशतिका १० / ५
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