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नैतिक उत्कर्ष | ३०५
हुआ, नैतिक जीवन के सीधे - सपाट राजमार्ग पर आता है और उस पर सावधानी से कदम बढ़ाता है ।
यह राजमार्ग है, नैतिक उत्कर्ष, गृहस्थ धर्म, एवं गृहस्थ नीति | इस वह लोक-परलोक दोनों की साधना करता है । आत्मिक शुभ और लौकिक शुभ दोनों को ही दृष्टिगत रखता हुआ, दोनों में समन्वय और ताल-मेल बिठाता हुआ नीति के उत्कर्ष की ओर चरण न्यास करता है ।
तदुपरान्त उसे मिलते हैं - सोपान - सीढ़ियां ।
वह सीढ़ियाँ हैं, जो नैतिक चरम - साधुचर्या - श्रमणधर्म के राजमन्दिर तक पहुँचाती हैं ।
इन सीढ़ियों - सोपानों को ही धर्मशास्त्रों में 'प्रतिमा' - श्रावक प्रतिमा के नाम से कहा गया है ।
जिस प्रकार सीढ़ियां चढ़ने के लिए कदमों में दृढ़ता की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार प्रतिमाओं के पालन में भी दृढ़ता अति आवश्यक होती है । इसीलिए प्रतिमा को 'प्रतिज्ञा विशेष', व्रत - विशेष - तप - विशेष, साधना पद्धति कहा गया है ।
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नैतिक उन्नति के यह सोपान, वे सोपान हैं, जहाँ कोई ( रेलिंग ) सहारा नहीं है । साधक अपनी मानसिक, वाचसिक और शारीरिक क्षमता व दृढ़ता से एक-एक सोपान क्रमशः चढ़ता हुआ, सबसे ऊँचे सोपान पर पहुँचता है, जहाँ उसे नैतिक चरम का समतल मैदान मिलता है और उस मैदान से परम शुभ-परम शुद्ध (Ultimate good) स्थिति को पहुंच सकता है, जहाँ नीति की सभी सीमाएं पीछे छूट जाती हैं ।
इन प्रतिमाओं का आरोहण साधक क्रमशः करता है । यह सोपान अथवा प्रतिमा ११ हैं -
(१) दर्शन, ( २ ) व्रत (३) सामायिक ( ४ ) पोषध ( ५ ) नियम ( ६ ) ब्रह्मचर्य (७ सचित्तत्याग ( ८ ) आरम्भत्याग ( 8 ) प्रेष्यपरित्याग अथवा परि
१. ( क ) प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञ ेतियावत्
(ख) प्रतिमा - प्रतिज्ञा अवग्रहः
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- स्थानांगवृत्ति पत्र ६१
वही पत्र १८४
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