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________________ ३०४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन दान, एक ऐसी विधा है, जिसका परिणाम दूरगामी होता है । यह पुण्य तो है ही, साथ ही समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति का एक सबल माध्यम भी है । जब तक हमारे देश में दान की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चलती रही; तब तक संपूर्ण देशवासी भी नैतिक बने रहे, शील और सदाचार तथा नैतिक आचरण में हमारा देश अग्रणी रहा, संसार में हमारे देश का मान सम्मान और गौरव रहा। हमारा देश संसार में सोने की चिड़िया (Golden bird) कहलाता था । दान अथवा स्वेच्छा से अपनी संपत्ति का संविभाग दानदाता के लिए यश, कीर्ति और गौरव बढ़ाता है, साथ ही समाज की नैतिक और चारित्रिक उन्नति भी करता है । समाज में नैतिकता का वातावरण बने, सभी लोग सुखी रहें, परस्पर एक-दूसरे के उपकार में संलग्न रहें, सहयोग की भावना बलवती बने, इसके लिए दान की गंगा का सतत प्रवाहित होना आवश्यक है । दान की एक अन्यतम विशेषता यह है कि यह स्वयं दानदाता के नैतिक जीवन में प्रगति - उन्नति का साधन बनता ही है, साथ ही समाज अन्य व्यक्तियों को नैतिक बनाने का सबल माध्यम भी है । नैतिक उत्कर्ष के सोपान ( श्रावक प्रतिमा) गति दो प्रकार की होती है - ( १ ) सीधी ( Horizontal) और (२) ऊँची (Vertical)। दोनों ही प्रगति कहलाती हैं; लेकिन प्रथम से दूसरी में विशेषता यह है कि वह सिर्फ प्रगति ही होती है जब कि दूसरी उन्नति कहलाती है । नैतिक विकास पर कदम बढ़ाता हुआ सद्गृहस्थ मिथ्या धारणाओं अंधकूप में से निकलकर आता है तो उसे सामने व्यसनों का बीहड़ वन दिखाई देता है, अपने आपको व्यसनों के तीखे कांटों वाली झाड़ियों से घिरा हुआ पाता है । किसी तरह व्यावहारिक नीति की पगडन्डी उसे मिलती है तो उस कँटीली झाड़ियों से बचता - बचाता अपने जीवन को शुद्धि की ओर बढ़ाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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