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________________ ३०० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन अतः नीतिपूर्ण आचरण करने वाले व्यक्ति को अनर्थदण्डविरमण व्रत के इन चारों प्रकारों से बचना चाहिए । इस व्रत के पाँच अतिचार हैं(१) कन्दर्प-विकारवर्धक वचन और अश्लील शरीर चेष्टाएँ । (२) कौत्कुच्य–विदूषकों जैसी विकृत चेष्टाएँ और वचन बोलना। (३) मौखर्य-अधिक बकवास करना, बढ़ा चढ़ाकर बात कहना। (४) संयुक्ताधिकरण-बिना आवश्यकता के हिंसक शस्त्रों को संयुक्त करके रखना; जैसे बन्दूक में गोली भर कर रखना। (५) उपभोग-परिभोगातिरेक-उपभोग-परिभोग की सामग्री को अधिक मात्रा में संग्रह करना। यथा-एक स्कूटर ही प्रयोग में आता है फिर भी दूसरा खरीद लेना, अथवा कम वस्त्र ही पहने जाते हैं; किन्तु फिर भी अधिक वस्त्रों का संग्रह करना । आवश्यकता से अधिक साधनों का संग्रह करना इस व्रत का अतिचार है। वस्तु स्थिति यह है कि नैतिक व्यक्ति अति गम्भीर होता है । गम्भीरता के अभाव में न नैतिकता सध सकती है और न उसमें प्रगति हो सकती है । अतः वह न व्यर्थ की बकवास करता है, न किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर ही बोलता है; वह नपे-तुले शब्दों में गम्भीरतापूर्वक वजनदार बात कहता उसके जीवन में छिछोरपन नहीं होता, अतः वह कुत्सित वचन भी नहीं बोलता और वैसी चेष्टाएँ भी नहीं करता। उसके जीवन का ध्येय 'सादा जीवन, उच्च विचार' हो जाता है अतः वह अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही उपभोग-परिभोग की सामग्री तथा साधन रखता है। शिक्षाव्रत डा० दयानन्द भार्गव के शब्दों में 'शिक्षाव्रत हृदय की पवित्रता पर अधिक बल देते हैं। बात भी ऐसी ही है। शिक्षाव्रत व्रती गृहस्थ की आध्यात्मिक साधना से मुख्यतया सम्बन्धित हैं । वे सद्गृहस्थ को श्रमण 8. Shikshavratas emphasise inner purity of heart. -D. N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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