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________________ नैतिक उत्कर्ष | २६५ इसी में उत्तेजक तथा नशीले पदार्थों की भी गणना कर ली जाती है, जैसे - अफीम, हैरोइन आदि । (४) जो वस्तुएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकर हों, ऐसी अनिष्ट वस्तुओं का सेवन भी त्याज्य समझा जाना चाहिए । (५) जो शिष्टजनसम्मत वस्तुएँ न हों, उनका सेवन भी न करें । यहाँ एक बात विचारणीय है कि इन उपभोग - परिभोग की वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार का व्यवसाय करना अति आवश्यक है । इस दृष्टिकोण से उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत के दो रूप हैं( १ ) उपभोग - परिभोग संबंधी और ( २ ) आजीविका के साधन सम्बन्धी | आजीविका के अनेक साधन हो सकते हैं । प्राचीनकाल में तो कई प्रकार के साधन थे ही; किन्तु आधुनिक युग में तो नए-नए साधन खुलते जा रहे हैं । इनकी गणना भी सम्भव नहीं है । किन्तु नीतिवान व्यक्ति को आजीविका के वे ही साधन अपनाने चाहिए जो नैतिक हों, नीतिपूर्ण हों और जिनको करने में धार्मिक और नैतिक दृष्टि से किसी भी प्रकार की अनुचितता न हो । इस दृष्टिकोण से शास्त्रों में कुछ ऐसे व्यवसाय बताये गये हैं, जिनको करना उचित नहीं है, ये निषिद्ध व्यवसाय हैं । निषिद्ध व्यवसाय निषिद्ध व्यवसाय का अभिप्राय है, ऐसे व्यवसाय जिनमें हिंसा अधिक हो, प्राणियों को अधिक कष्ट हो, सामाजिक शांति और सुव्यवस्था में बाधक बनें, असामाजिकता अथवा समाज विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिले । इन व्यवसायों को शास्त्रों में कर्मादान कहा गया है । कर्मादान का अभिप्राय है जिन कार्यों व्यवसायों से अधिक और संक्लेशकारी, दुखदायी कर्मों का आगमन और संचय हो । 'कर्मादान' अथवा निषिद्ध व्यवसाय का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है । ( १ ) अंगारकर्म - अग्नि संबंधी व्यापार; जैसे - लकड़ी जलाकर कोयले बनाना और उन्हें बेचना | (२) वनकर्म - वन काटना, घास काटना आदि का व्यापार । १. योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, श्लोक ९८ - ११३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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