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________________ २९६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन (३) शकटकर्म-वाहन निर्माण सम्बन्धी व्यापार । (४) भाटकर्म-वाहन किराये पर देकर आय उपाजित करना। ' (५) स्फोटकर्म-ऐसे व्यवसाय जिनमें भूमि को फोड़ना पड़ता है, जैसे खान खुदवाने का व्यवसाय । (६) दंतवाणिज्य-हाथी दाँत आदि का व्यवसाय । (७) लाक्षावाणिज्य-लाख का व्यापार ।। (८) रस वाणिज्य–मादक वस्तुओं; यथा--शराब आदि का व्यापार । इसी में आधुनिक युग में प्रचलित अफीम (Opium), हैरोइन, ब्राउन सुगर (Brown Sugar) आदि का व्यापार भी सम्मिलित है। .. (६) केशवाणिज्य-बाल अथवा बाल वाले पशुओं का व्यापार । (१०) विषवाणिज्य-जहरीले पदार्थ एवं हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यवसाय। (११) यन्त्रपीड़न कर्म-यन्त्र, सांचे, घाणी, कोल्हू आदि का व्यवसाय। (१२) निलाञ्छन कर्म-प्राणियों के अंग-उपांग, अवयव आदि छेदना, बैलों को नपुसक बनाना आदि। (१३) दावाग्निदापन-वन में आग लगाना । (१४) सरद्रह तडागशोषणता कर्म-जलाशय आदि को सुखाना। (१५) असतीजन पोषणता कर्म-दुर्बल चरित्र वाली युवतियों, कुमारियों, society girls आदि को नियुक्त करके उनसे व्यभिचार कराके धनोपार्जन करना, असामाजिक तत्वों को संरक्षण देना, उनका पोषण करना, हिंसक पशुओं को पालना आदि । इनमें से कुछ व्यवसाय, यथा- असतीजन पोषणता, विष वाणिज्य आदि तो स्पष्ट ही अनैतिक कार्य हैं, किन्तु कुछ के विषय में आधुनिक युग की प्रवृत्तियों तथा भौतिक उन्नति के समर्थकों द्वारा विवाद उठाया जा सकता है। जैसे-यदि खाने नहीं खोदी जायेंगी तो लोहा, मेंगनीज, अभ्रक १. रसवाणिज्ये सुरादि विक्रयः । -उपासकदशा, टीका अभयदेव १/६ पृ० १५-१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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