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२९४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
आधुनिक युग में ऐड्स, कैंसर आदि घातक रोग, काम-भोग की बढ़ती हुई तीव्रता, देश का धन विदेशों में जाना आदि जो व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के लिए अहितकर और अनैतिक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, वह सब निर्बाध गमनागमन का परिणाम ही है। सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक सम्पर्कों की आड़ में देश के रहस्य, विदेशियों के हाथ में किस प्रकार पहुंच रहे हैं यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इस भ्रष्टाचार और देशघाती प्रवृत्तियों को रोकने में दिशा परिमाणवत बहुत सीमा तक सहायक हो सकता है । उपभोग-परिभोग परिमाणवत
नैतिक जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपने उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का परिसीमन करे ।
उपभोग का अभिप्राय है—एक बार काम में आने वाली वस्तुएँ, यथा-जल, आहार, फल आदि । और परिभोग वे वस्तुएँ हैं जिनका बारबार उपयोग किया जाना संभव है, यथा-बर्तन, पहनने-ओढ़ने के वस्त्र, शय्या, मकान आदि।
इन दोनों प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा करने से व्यक्ति के नैतिक जीवन में काफी सहायता मिलती है ।
ऐसी उपभोग-परिभोग की वस्तुएँ संख्या में कितनी ही हो सकती हैं; प्राचीन सूत्रों में छब्बीस वस्तुओं की सूची दी गई है।
उपभोग-परिभोग योग्य वस्तुओं की यथाशक्ति और यथापरिस्थिति विवेकी व्यक्ति मर्यादा निश्चित करता है, यह सत्य है कि उसके लिए इन वस्तुओं का मर्यादित रूप में ही सही, उपयोग करना आवश्यक सा है, क्योंकि इनके बिना उसका जीवन नहीं चल पाता।
फिर भी वह पांच बातों की सावधानी रखता है
(१) वह ऐसी वस्तुओं का उपभोग नहीं करता जिनमें त्रस जीवों का वध हो, जैसे रेशमी वस्त्र, काडलिवर आइल आदि ।
(२) बहुवध-जिन वस्तुओं में बहुत-से स्थावरकाय जीवों की हिंसा होती है, जैसे-अनन्तकाय पिंड, जमीकन्द आदि ।
(३) प्रमादबहुल-प्रमाद अथवा आलस्य बढ़ाने वाला तामसिक भोजन सद्विवेकी व्यक्ति को नहीं खाना चाहिए, साथ ही अधिक मात्रा में विगई (विकृति) का सेवन भी उचित नहीं है।
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