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नैतिक उत्कर्ष | २६१
समान असीमित हैं, इन असीमित इच्छाओं को सीमित करना ही इस व्रत का अभिप्रेत है, लक्ष्य है, उद्देश्य है ।
क्योंकि इच्छा कभी भी तृप्त नही होती, एक बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी इस प्रकार गुणात्मक (Harmonical progression) ढंग से बढ़ती चली जाती है। यही कारण है कि इच्छा तृप्ति में सुख नहीं है, सुख है इच्छा की निवृत्ति में।
नैतिक दृष्टिकोण भी यही है। यद्यपि इच्छा नीति का एक प्रत्यय है किन्तु वहां 'इच्छा' से अभिप्राय उस इच्छा से है जो स्वयं अपने और दूसरे के लिए हितकर हो, किसी को दुःखी करने वाली न हो । इस प्रकार 'नैतिक इच्छा ' (good will) में 'संतोष' का भाव निहित है। और दुःखदायी तथा असीमित इच्छा को वहां भी अनैतिक प्रत्यय (Evil concept) कहा गया है।
___ आज के युग में मन को लुभाने वाले, नई-नई इच्छाओं को उत्तेजित करने वाले अनेक साधन विज्ञान प्रस्तुत कर रहा है । अतः धार्मिक और नैतिक दोनों दृष्टियों से ही इस व्रत का महत्व बढ़ गया है क्योंकि संतोषी मानव ही नैतिक जीवन में गति-प्रगति कर सकता है ।
धर्मशास्त्रों में परिग्रह नौ प्रकार का बताया गया है(१) क्षेत्र-खुली भूमि, खेत, बाग, खान आदि (open land)
(२) वास्तु (covered area)-मकान, दूकान, बंगला, कारखाना आदि
(३) हिरण्य-चांदी के बर्तन आभूषण आदि
(४) सुवर्ण-सोने के आभूषण, बर्तन, ज्वेलरी तथा अन्य फैन्सी वस्तुएँ आदि
(५) धन-रुपये, पैसे, नोट, ड्राफ्ट तथा बैंक बैंलेस आदि (६) धान्य-अन्न, गेहूँ, चावल आदि। (७) द्विपद-दो पांव वाले प्राणी-दास-दासी, कबूतर पक्षी आदि (८) चतुष्पद-चार पैरों वाले प्राणी-घोड़ा, कुत्ता, गाय आदि (8) कुप्य-घर का अन्य सामान, यथा-वस्त्र, सोफासेट, स्टील आदि
१ उत्तराध्ययन सूत्र ६/४८-इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।
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