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२९० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
दूसरों के विवाह सम्बन्ध करने अथवा कराने में अधिक दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए, वरपक्ष अथवा कन्यापक्ष को जोर नहीं देना चाहिए ।
अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह तो नैतिक दृष्टि से भी उचित है, क्यों कि विवाह होने से उनको काम पूर्ति का एक नैतिक मार्ग मिल जाता है अन्यथा उद्दाम-काम उन्हें अनैतिक भी बना सकता है । कुमार्ग और अनतिकता की अंधेरी गलियों में भटका सकता है ।
विपरीत परिणाम कारण जो गृह
किंतु अन्यों के विवाह सम्बन्ध जोर देकर कराने के भी सामने आ सकते हैं । आधुनिक युग में दहेज दानव के कलह के अखाड़े बन रहे हैं, निर्दोष युवतियाँ अग्नि की भेंट चढ़ रही हैं । इन सब अनैतिकताओं के लिए मध्यस्थ भी उत्तरदायी ठहराया जाता है, उसकी सदाचारिता, ईमानदारी, नैतिकता भी शंकास्पद बन जाती है ।
अतः इस प्रकार के विवादास्पद, पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों से सद्विवेकी गृहस्थ को दूर ही रहना श्र ेयस्कर है ।
(५) काम भोग तीव्राभिलाषा - कामेच्छा की तीव्रता मानव को अनैतिकता की ओर प्रवृत्त कर सकती है । यदि शारीरिक रूप से वह समाज तथा परिवार भय से, लोक लज्जा से अनैतिक आचरण न करे, तब भी उसका मन-मस्तिष्क तो दूषित होगा ही, उसमें नीतिविरोधी विचारों का बबंडर तो उठेगा ही ।
अतः काम भोग की तीव्र अभिलाषा भी अनैतिक ही है ।
संक्षेप में, धर्मशास्त्रीय दृष्टि से कहे गये यह पांचों अतिचार नीति शास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अनुचित एवं अनैतिक माने जायेंगे । स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत
इस व्रत का मूल अभिप्राय है - इच्छाओं पर अंकुश लगाना, उन्हें यथाशक्ति और यथासंभव कम करना, संतोषवृत्ति धारण करना ।
इच्छाओं के विषय में कहा गया है कि ये अनन्त हैं, आकाश के
१ (क) उपासकदशा १ / ६ अभयदेववृत्ति पृ० १३
(ख) D. N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 122
(ग) K. C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p. 85 (घ) द्रष्टव्य - श्री देवेन्द्र मुनि : जैन आचार, पृ. ३१३ - ३१६
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