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________________ नैतिक उत्कर्ष | २८९ इसलिए इन तीनों रूपों में से किसी भी प्रकार का दोष सद्गृहस्थ अपने जीवन में नहीं लगाता।। (२) अपरिग्रहीतागमन-इसका धर्मशास्त्रीय अभिप्राय है-वेश्याओं, कुमारिकाओं, विधवाओं आदि जिनका कोई एक स्वामी न हो उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करना । किन्तु नीतिशास्त्र की विचारणा इस विषय में व्यापक है । नैतिक व्यक्ति नीति के पथ पर प्रथम कदम रखते ही वेश्या तथा अन्य सभी स्त्रियों का त्याग कर देता है। सप्तव्यसन त्याग में ही वह वेश्यागमन तथा परदाररमण का त्याग कर देता है और अपनी विवाहित धर्मपत्नी (भोगपत्नी अथवा उपपत्नी नहीं) के अतिरिक्त संसार की सभी स्त्रियों को पर-दारा-माता-बहन के समान मान लेता है। तब नीतिपूर्ण आचरण करने वाला विवेकी व्यक्ति इस प्रकार का दोष अपने जीवन में कैसे लगा सकता है ? वह ऐसा आचरण कभी नहीं करता। इस विषय में आचार्य आत्माराम जी म० का कथन काफी वजनदार है-अपनी वाग्दत्ता (जिसके साथ सगाई हुई हो, विवाह न हुआ हो) को भावी पत्नी मानकर उसके साथ गमन करना। ऐसा ही मत श्री अमोलक ऋषि जी महाराज का है। यद्यपि नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण की अपेक्षा यह भी उचित नहीं ठहराया जा सकता; किन्तु धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण की अपेक्षा यह कम अनैतिक है । नैतिक व्यक्ति इस दोष को भी नहीं लगाता। (३) अनंगक्रीड़ा--मैथुन सेवन के प्राकृतिक अंगों से अतिरिक्त अन्य अंगों से काम-क्रीड़ा करना। इसमें हस्तमैथुन, गुदामैथुन आदि सभी प्रकार की विकृत काम-क्रीड़ाओं का वर्जन है। __पश्चिमी देशों में समलिंगी मैथुन (Homo) की जो दुष्प्रवृत्ति बढ़ रही है, नीतिशास्त्र इस प्रवृत्ति को निन्दनीय और सर्वथा हेय मानता है। (४) परविवाहकरण- सामाजिक और पारिवारिक दृष्टि से अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना तो सद्गृहस्थ का दायित्व है; किन्तु उसे १ आत्माराम जी महाराज : तत्वार्थसूत्र-जैनागम समन्वय, पृ. १७० २ अमोलक ऋषि जी महाराज : परमात्म मार्गदर्शक पृ. १६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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