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२६२ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
के बर्तन, मेज कुर्सी आदि । इन्हीं में मोटर साइकिल, स्कूटर, कार, मोपेड आदि भी सम्मिलित हैं।
इन वस्तुओं में ही आधुनिक युग में बहु-प्रचलित टी० वी०, वी० सी० आर० आदि भी समझ लेने चाहिए ।
गांधीजी ने परिग्रह परिमाण के लिए न्यास सिद्धान्त (Trusteeship) का प्रतिपादन किया। इसका अभिप्राय है-व्यक्ति परिग्रह तो रखे, किन्तु उस पर अपना स्वामित्वभाव (Ownership) न रखे।
__ स्वयं गांधीजी अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं तक ही सीमित रहते थे और इसी का वे प्रचार करते थे । इच्छा-सीमन और स्वामित्वभाव का त्याग, इनके अपरिग्रह व्रत की धुरी थे।
__यही सिद्धान्त परिग्रह के लिए जैनशास्त्र का है। वह भी मूर्छा को परिग्रह मानता है। मू» का अभिप्राय है-तीव्र ममत्वभाव, अपनापन, स्वामित्वभाव।
परिग्रह की अधिक लालसा, संग्रह-संचय आदि का अवश्यंभावी परिणाम समाज में ईर्ष्या, द्वेष, विग्रह, वर्गसंघर्ष का प्रसार-प्रचार है। और यह सभी प्रवृत्तियाँ अनैतिकता की जननी हैं। परिग्रह की लालसा और वस्तुओं का संचय-संग्रह स्वयं व्यक्ति को भी अनैतिकता के फिसलन भरे ढालू मार्ग की ओर प्रेरित करता है तथा ऐसे वातावरण का निर्माण होता है कि समाज के अन्य व्यक्ति भी अनैतिकता की ओर लालायित होते हैं, अनैतिक आचरण करते हैं।
गुणवत गुणव्रत, अणुव्रतों के गुणों को बढ़ाते हैं, उनकी रक्षा और विकास करते हैं; उनमें चमक-दमक पैदा करते हैं। इसीलिए इनका गुण-निष्पन्न नाम गुणव्रत है।
१. (क) D. N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 122-24
(ख) K. C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism, p. 82-87. २ सर्वोदय-दर्शन, पृ. २८१-२८२ ३ मुच्छा परिगहो वुत्तो
-दशवकालिक ६/२१
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