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२८६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
( ३ ) धन संचय की भावना, (४) कम परिश्रम से अधिक धन उपार्जन की लालसा, (५) अपव्ययता आदि ।
यह कारण तो वैयक्तिक हैं । किन्तु कुछ ऐसे कारण भी आज की - सामाजिक व्यवस्था में पैदा हो गये हैं, जिनकी वजह से मानव को चोरी करने के लिए विवश होना पड़ता है । इनमें से प्रमुख कारण हैं - ( १ ) बेरोजगारी, (२) भुखमरी आदि ।
आज समाज में धनी व्यक्ति का ही सम्मान अधिक होता है । गुणों के स्थान पर धन की पूजा होने लगी है । यह भी मानव को चोरी के लिए उत्साहित करता है । यही कारण है कि आज के युग में चोरी के इतने उपाय और प्रकार प्रचलित हो गये हैं कि उनकी गणना भी सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त विडम्बना यह है कि चोरी के नये-नये तरीके ईजाद हो रहे हैं ।
लेकिन जैन विचारणा में चोरी के सभी प्रकार निन्दनीय माने गये हैं। वह केवल नीतिपूर्ण ढंग से उपार्जित धन की इजाजत देता है, उसी का संग्रह गृहस्थ कर सकता है ।
किन्तु गांधीजी ने चोरी की परिभाषा को अधिक विस्तृत रूप में -माना है । वे कहते हैं - आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह चोरी है ।' आवश्यकता से उनका अभिप्राय जीवन की वे अनिवार्य आवश्यकताएं हैं जिनके अभाव में जीवन चल ही न सके, सादा जीवन में भी बाधा उत्पन्न हो जाय ।
शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार ( १ ) चोरी की वस्तु खरीदना, (२) चोरी के लिए प्रोत्साहन देना, (३) माप-तौल में गड़बड़ी करना, कम देना, ज्यादा लेना, (४) अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिला देना, (५) तस्करी के लिए विरोधी राज्य में जाना - यह सब चोरी है | 2 चोरी, किसी भी प्रकार की हो, चाहे सफेदपोश (White collar )
१ : आधार - गांधीवाणी, पृ० १६
२.
(क) १ तेनाहडे, २ तक्करपओगे, ३ विरुद्धरज्जातिकम्मे, ४ कूडतुल्ल कूडमाणे, ५ तप्पड वगववहारे । - उपासकदशा १ / ६, अभयदेव वृत्ति पृ० ११-१३ (ख) D.N. Bhargava : Jaina Ethics, p. 120
(ग) K. C. Sogani : Ethical Doctrines in Jainism. p. 84
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