________________
नैतिक उत्कर्ष | २८५ (२) रहस्याभ्याख्यान-किसी की गुप्त बात को प्रगट कर देना, गोपनीयता भंग कर देना, गुप्त (Secret) दस्तावेजों को दुर्भावना से प्रगट कर
देना।
(३) स्वदारमंत्रभेद-पति-पत्नी की पारस्परिक गुप्त बातों को प्रगट कर देना।
(४) मिथ्योपदेश-मिथ्या-झूठा उपदेश देना, गलत दिशा में मार्गदर्शन करना । ऐसा दो दशाओं में हो सकता है-(१) अनजान में और (२) जानबूझकर। अनजान में, पूरी जानकारी के बिना किसी को कोई सलाह दी जाय और वह गलत साबित हो, अथवा उस सलाह का परिणाम अनैतिक आचरण के रूप में आये तो वह अतिचार अथवा दोष है। जानबूझकर किसी को गलत सलाह देना स्पष्ट झूठ है, नीति/व्रत विरुद्ध है।
(५) कूटलेखक्रिया -झूठे दस्तावेज बनाना, किसी के जाली हस्ताक्षर बना देना, जाली हुण्डी, नोट, सिक्के आदि बनाना।
__यह पांचों ही अतिचार अनैतिक हैं। रहस्याभ्याख्यान, सहसाभ्याख्यान, स्वदारमन्त्रभेद-यह तीनों ही पारिवारिक विघटन और सामाजिक क्लेश की स्थिति का निर्माण करते हैं, पति-पत्नी में मनमुटाव हो जाता है, घर अशान्ति का अखाड़ा बन जाता है।
मिथ्योपदेश कुमार्ग को बढ़ाता है और कूटलेखक्रिया से अन्य व्यक्तियों, समाज, राष्ट्र को हानि होती है । वैर-विरोध बढ़ता है। .. यह सभी अशुभ प्रत्यय हैं, नीतिपूर्ण आचरण के विरोधी हैं ।
अचौर्याणवत चोरी का लक्षण है- अदतादानं अस्तेयं-बिना दी हुई अथवा बिना अनुमति के किसी की भी वस्तु लेना चोरी है। यह चोरी किसी के घर में सैंध लगाकर, ताला तोड़कर, गांठ या जेब काटकर की जाती है और आधुनिक सभ्य तरीकों से भी।
नीतिवान सद्गृहस्थ ऐसी कोई भी चोरी नहीं करता। यदि उसे कोई धन अथवा वस्तु पड़ी मिल जाय और उसके स्वामी का पता लग जाय तो उसे लौटा देता है। उस वस्तु को अपने उपयोग में नहीं लेता; यदि स्वामी का पता न लगे तो सामाजिक कार्यों में लगा देता है।
वह न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है और न किसी दूसरे को चोरी की प्रेरणा देता है, अथवा चोरी करवाता है।
चोरी करने, करवाने अथवा चोरी में सहायक बनने के अनेक कारण हैं, यथा-(१) भोगों के प्रति आसक्ति, (२) यश-प्रतिष्ठा की भूख
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org