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________________ २७% | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन मानव के नैतिक आचरण के विचारणा, वाचनिक प्रवृत्ति और कायानुवृत्ति के तीन साधन हैं और तीन ही प्रकार हैं। साधनों को जैन शास्त्रों में 'करण' कहा गया है और प्रकार का अभिप्राय 'योग' है। योग तीन हैं-(१) मनोयोग, (२) वचनयोग और (३) काययोग । __ करण भी तीन हैं-(१) कृत-स्वयं करना (२) कारित-किसी दूसरे को आज्ञा अथवा प्रेरणा देकर कराना और (३) अनुमोदनकिसी दूसरे को कोई कार्य करते देखकर उसकी प्रशंसा करना, उचित ठहराना। इन तीनों योगों और तीन करणों का सन्तुलन–बेलेन्स रखकर व्रतों का परिपालन किया जाता है और नैतिक आचरण भी किया जाता है। तीन योग एवं तीन करण की शुद्धतापूर्वक (नवकोटि) व्रतों की आराधना साधु-साध्वी ही कर पाते हैं, क्योंकि वे सभी सावद्यकारी (पापमय तथा अनैतिक) क्रियाओं से पूर्णतया विरक्त-सर्वविरत होते हैं । लेकिन गृहस्थी के उत्तरदायित्व के कारण नीतिवान सद्गृहस्थ नवकोटि व्रत का पालन नहीं कर पाता । उसका अनुमोदना करण खुला रहता है, अतः उसका त्याग छह कोटि होता है । फिर गृहस्थ अपनी स्थिति-परिस्थिति के अनुसार व्रत ग्रहण करता है तथा उनका परिपालन करता है। वह एक योग-एक करण, दो योगदो करण आदि विभिन्न प्रकार से व्रत ग्रहण कर सकता है, किन्तु यह आवश्यक है कि व्रतों का परिपालन निरतिचार-बिना कोई दोष लगाये ही करे। इसी प्रकार यह व्यक्ति की अपनी निजी क्षमता पर निर्भर है कि वह कितनी नैतिकता का पालन कर सकता है। किन्तु यह आवश्यक है कि अपने आचार-विचार में छलना-प्रवंचना न करे । ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसका बाह्य रूप-लोक दिखावे का रूप कुछ और हो तथा आन्तरिक रूप कुछ दूसरे ही प्रकार का हो । हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और, यह प्रवृत्तिनैतिक एवं धार्मिक सभी दृष्टिकोणों से निन्दनीय और गर्हणीय है। ऐसी प्रवृत्ति की अपेक्षा किसी भी धार्मिक तथा नैतिक व्यक्ति से नहीं की जा सकती। __ अब इस नैतिक आचार-विचार के परिप्रेक्ष्य में श्रावक व्रतों और उनके अतिचारों का विवेचन करेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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