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अणुव्रत
जैसा कि इसी अध्याय में बताया जा चुका है कि श्रावक व्रतों में सर्वप्रथम, सर्वप्रमुख और श्रावक जीवन के आधारभूत पांच अणुव्रत हैं(१) अहिंसाणुव्रत ( २ ) सत्याणुव्रत ( ३ ) अस्तेयाणुव्रत (४) अचौर्याणुव्रत और (५) अपरिग्रहाणुव्रत ।
नैतिक उत्कर्ष | २७६
अहिंसाणुव्रत
यद्यपि सभी धर्मो-दर्शनों में अहिंसा का गौरवपूर्ण स्थान है । इसे परमधर्म बताया गया है । अहिंसक व्यक्ति को नैतिक कहा गया है । किन्तु जैन-धर्म-दर्शन का तो प्राण ही अहिंसा है । जैन आचार-विचार नीति आदि सभी कुछ अहिंसा पर आधारित हैं ।
इन्हीं सब कारणों से जैन शास्त्रों में अहिंसा का विशद्, तलस्पर्शी, गहन, गम्भीर और सर्वांगपूर्ण विवेचन हुआ है ।
जैन आगमों में हिंसा के दो प्रमुख भेद बताये गये हैं - ( १ ) संकल्पजा हिंसा और (२) आरम्भजा हिंसा । इनमें से गृहस्थ साधक संकल्पना हिंसा का त्यागी होता है ।
बाद के व्याख्याकारों ने हिंसा के चार भेद कर दिये हैं- ( १ ) संकल्पी हिंसा (२) विरोधी हिंसा (३) उद्यमी हिंसा (४) आरंभजा हिंसा । किन्तु विरोधी, उद्यमी और आरंभी - यह तीनों ही आरंभजा हिंसा के उत्तर भेद हैं । विरोधी हिंसा का अभिप्राय है - अपराधी व्यक्ति को दण्ड देना, उसके साथ संघर्ष करना; उद्यमी हिंसा - उद्यम, उद्योग, आजीविका के साधनों के उपार्जन में होने वाली हिंसा है और आरंभी हिंसा गृह व्यवस्था, भोजन बनाना आदि सभी कार्यों में अनिवार्य रूप से हो जाने वाली हिंसा को कहा गया है ।
संकल्पजा हिंसा का अभिप्राय है- जान-बूझकर, मारने के इरादे से किसी भी प्राणी का वध करना । हिंसा की नीयत से वध करना संकल्पजा हिंसा है ।
१. से पाणाइवाइए दुविहे पण्णत्त े, तं जहा - संकप्पओ य आरम्भओ य ।
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- उपासकदशांग १
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