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नैतिक उत्कर्ष | २७७ (३) अतिचार-नियम का आंशिक रूप से अतिक्रमण हो जाना। (४) अनाचार-नियम को भंग कर देना।
इनमें से अनाचार तो स्पष्ट रूप से अनंतिकता है ही। नीतिवान पुरुष के जीवन में इसका कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि अनाचार को पूर्णतया त्यागकर ही तो वह नीति के पथ पर बढ़ता है।
अतिक्रम और व्यतिक्रम, यद्यपि अनैतिक तो हैं, किन्तु यह विशेष रूप से मानव के व्यक्तिगत जीवन से ही सम्बन्धित हैं। इनका पारिवारिक, सामाजिक प्रभाव नगण्य होता है। और इनके बाद मानव स्वयं ही सँभल भी जाता है, विवेक बुद्धि सजग होते ही वह स्वयं ही नैतिक पथ पर पुनः स्थिर हो जाता है।
अतिचार, ऐसा दोष है जिसका व्यक्ति के स्वयं के जीवन पर तो प्रभाव पड़ता ही है, साथ ही अन्य व्यक्तियों पर, समाज पर, परिवार पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। .
यही कारण है कि जैनाचार्यों ने श्रावक के प्रत्येक व्रत के साथ अतिचार गिनाये हैं और उनसे बचने की प्रेरणा दी है। कहा है-यह अतिचार जानने चाहिए, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं ।
नीतिकार और आचारशास्त्रो सभी इस बात पर एकमत हैं कि मानव को दोषरहित जीवन व्यतीत करना चाहिए-नैतिक दृष्टि से भी और धार्मिक दृष्टि से भी।
व्रत-ग्रहण की विधि एवं मर्यादा ___इतना तो निश्चित है कि नीतिवान व्यक्ति जो अभी नैतिक उत्कर्ष की ओर कदम बढ़ा रहा है, वह गृहत्यागी श्रमण नहीं बना है, अभी वह गृहस्थ ही है, उसे गृहस्थ सम्बन्धी सभी व्यावहारिक कर्तव्य भी पालनकरने होते ही हैं, इसी कारण वह अहिंसा आदि व्रतों का पालन सम्पूर्ण रूप से करने में सक्षम नहीं हो पाता, वह इन व्रतों को सीमित, आंशिक रूप से मर्यादापूर्वक ग्रहण करके पालन करता है। आंशिक रूप से ग्रहण करने के कारण उसके व्रत अणुव्रत कहलाते हैं।
विधि और मर्यादा-इन दोनों का व्रतों के सन्दर्भ में विशिष्ट स्थान है।
१. अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा ।
-प्रतिक्रमण सूत्र
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