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________________ उस परम्परा के मौलिक शुद्ध स्रोत के अनुगामी नहीं थे, केवल ऐहिक स्वार्थ वत्ता की वहां सम्भावनाएँ थीं, अतएव ऐसे अनेक प्रसंग बने, जहां नीति ने धार्मिक आदर्शों को अक्षुण्ण नहीं रहने दिया, जैन नीति में वैसा कभी स्वीकार्य नहीं हुआ । यदि स्वार्थवश कभी किसी द्वारा वैसा अपनाया भी गया तो उसे नैतिक मान्यता नहीं मिली । निःसन्देह जैन नीति का यह पक्ष, जो संयम, नियम, व्रत, त्याग, तितिक्षा, अनुकम्पा आदि से अनुप्रेरित रहा, कभी क्षीण नहीं हुआ । ऐसा होने में धार्मिक सिद्धान्त तो उत्प्रेरक रहे ही, जैन धर्म में आस्थावान जनों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी सहायक रही । भगवान महावीर के युग 'को लें तो हमें कुछ ऐसे व्यक्ति प्राप्त होते हैं जो अपने युग के नैतिक मानदण्ड के रूप में अवस्थित हैं । द्वादशांगी के अन्तर्गत उपासकदशा नामक आगम ग्रन्थ में भगवान महावीर के दश प्रमुख उपासकों का जीवन चरित्र है, जिसके प्रथम अध्ययन में वर्णित श्रमणोपासक आनन्द का जीवन एक प्रतीक है, जो अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है | आनन्द बहुत सम्पन्न था । कृषि, वाणिज्य आदि के रूप में उसका बहुत बड़ा व्यवसाय था । यह सब तो था किन्तु एक नागरिक के रूप में अपने नैतिक दायित्वों को जिस प्रकार वह निभाता था, वह उसकी नैतिक अवधारणाओं की सुन्दरतम क्रियान्विति का साक्ष्य है । वैभव के बढ़ने के साथ-साथ तब उन्माद, अभिमान और जन साधारण से पार्थक्य नहीं बढ़ता था, जो उनके नीतिनिष्ठ जीवन का संसूचक है । वर्तमान के सन्दर्भ में जब हम जाते हैं तो यह सब ऐतिहासिक प्रतीत होता है। जैन नैतिकता की जो अपनी असाधारण पहचान थी, वह अब सुरक्षित नहीं रह पायी है । इससे स्पष्ट है कि जैनों ने कुछ ऐसा खोया है, जो काफी बहुमूल्य था । इस प्रकार अनेकानेक पहलुओं को उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ने अपने ग्रन्थ में बहुत बारीकी से परखने का विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया 1 ग्रन्थ के अन्त में वैदिक, बौद्ध तथा जैन नीति वचनों का जो परिशिष्टों के रूप में प्रस्तुतीकरण किया गया है, उससे ग्रन्थ की उपयोगिता निश्चय ही बढ़ गई है | जैन नीतिशास्त्र के क्षेत्र में अपनी कोटि का यह पहला ग्रन्थ है, जिसमें आगम - काल से लेकर अब तक के जैन नीति के विविध आयामों को तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक दृष्टि से सम्यक् उपस्थापित करने का बड़ा सुन्दर समीचीन, समुचित प्रयास किया गया है । उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी का विद्वज्जगत निःसन्देह ऋणी रहेगा । जिज्ञासु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपयोगी तथा ज्ञानवर्धक होगा ही, विशेषतः उच्च अध्ययनार्थियों ( २८ Jain Education International ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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