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होकर कार्यशील होने में अवरोध उत्पन्न करता है, जो जीवन की पवित्रता को सूप्रतिष्ठ बनाए रखने का एक सशक्त माध्यम सिद्ध होता है। इस परम्परा ने जैन मानस को सत्य के अधिकतम निकट बने रहने में प्रेरित किया । ऐसी स्थितियों में, जहां वैभव के प्रलोभन में मानव सत् सिद्धान्तों से विचलित हो जाता है, जैनत्व में आस्थाशील व्यक्ति वैसे नहीं हुए, उनमें सत्य के प्रति अविचल दृढ़ता का भाव पनपा, जिसने उनके व्यक्तित्व में ऐसी प्रामाणिकता का संचार किया, जो ऐहिक आकर्षणों के झंझावातों से कभी प्रकम्पित, चलित नहीं हुई।
मध्यकालीन भारतीय राजनीति में जब देश विभिन्न क्षत्रिय नरेशों द्वारा शासित था, जैनों का उनके यहां शासनतन्त्र तथा व्यवस्थातन्त्र में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा। कर्नाटक के महामात्य, प्रधान सेनापति चामुण्डराय, जिन्होंने श्रमणवेल गोला में, भगवान बाहुबलि की छप्पन फीट ऊँची पाषाण प्रतिमा का निर्माण करवाया, जो अपनी कोटि की संसार की सबसे ऊंची प्रतिमा है, जो स्थापित नहीं है, उसी पर्वत शिखर का उत्कीर्ण अंश है, जहाँ वह स्थित है, भारतीय इतिहास गगन के देदीप्यमान नक्षत्र के रूप में उजागर हैं। उसी प्रकार आबू पर्वत-स्थित देलवाड़ा के विश्वविख्यात, उत्कीर्णन कला के अनुपम उदाहरण जैन मन्दिरों के निर्माता वस्तुपाल तेजपाल भी वैसे ही एक अन्य उदाहरण है। वे धवतक्य पूर्वक धौला) सौराष्ट्र के महामात्य और प्रधान सेनानायक थे। यह परम्परा आगे भी गतिशील रही। राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर जैसे बड़े-बड़े राज्यों के सेनापति प्रायः ओसवाल जैन रहे। ऐसा होने में उनके जीवन का एक पक्ष विशेष प्रभावक रहा, जो नैतिक था। क्षत्रिय राजा क्षत्रियों को प्रायः इसलिए महामात्य एवं प्रधान सेनापति का पद नहीं देते थे, क्योंकि उनसे स्वयं राज्य के प्रलोभन में आकर विद्रोह की आशंका बनी रहती थी। उनकी प्रामाणिकता में राजा विश्वस्त नहीं थे। वहाँ जैनों में उनको इस बात का पूर्ण विश्वास रहता कि वे स्वयं के लोभ में आकर अपने स्वामी के साथ विश्वासघात नहीं करेंगे और इतिहास बताता है कि विश्वासघात का वैसा कोई प्रसंग नहीं बना। यहाँ जैन नीति का एक असाधारण वैशिष्ट्य हमारे समक्ष उपस्थित होता है, जो वस्तुतः चामत्कारिक है, जिसने भारतीय राजनीति और शासनतन्त्र को ऐसे पावित्र्य का सन्देश दिया, जो आज भी प्रेरणास्पद है। मैं पुनः स्मरण कराना चाहूँगा कि जहां अन्य परम्पराओं में नीति ने ऐसे समझौते किये, जो
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